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अधिक मास

adhik mas

मोहन राणा

मोहन राणा

अधिक मास

मोहन राणा

और अधिकमोहन राणा

    आस्था को सिलता मैं पैबंद हूँ

    भूली हुई परंपरा की कतरन याद करवाता,

    ख़ुद को ही पढ़ता और लिखता

    दराज़ों में तहों में दबा कहीं एक अनुवाद,

    बची रहे उनमें हमारी मुलाक़ातों में अचकचाहट

    मैं खोजूँगा पिछली बार की तरह

    पन्नों में सूखती फुनगियों में रह गई छायाओं में कोई मतलब

    उस संसार में कोई कभी गया नहीं रंगों को जगाने

    किसी ने जाना नहीं उसे अपने व्यक्तिगत लुकाए-छुपाए

    देखने एक झलक कनखी भर

    जब भी मौक़ा मिले हर वसंत की तरह अभूतपूर्व

    दूर ही रहूँगा दूरियों के नक़्शों से भी अलग

    जानते हुए बहुत लंबा है यह अचीन्हा अधिक मास,

    कि तुम डर जाओगी बन जाओगी मछली

    रोशनी की पहुँच से दूर,

    बन जाओगी तितली हवा में लुप्त,

    पास नहीं आऊँगा, किसी जगह मैं तुम्हें बंद नहीं कर रहा

    दरारों की दीवारों को जोड़ता

    तुम्हें सहेजने के लिए बना नहीं रहा कोई आला,

    खोलो अपनी हथेली मैं रखना चाहता हूँ कोई आश्चर्य उस पर

    बंद तो करो आँखें ताकि देख सकूँ उनका सपना

    ताकि भूल जाऊँ बीते भविष्य को

    रख देता दूँ उस परकटे नीड़ को दरारों के बीच

    उनींदा विहंग उड़ेगा वहाँ से कभी

    जहाँ छायादार पेड़ झूमेगा हवा को सँभालता,

    समय के थपेड़ों से बनी झुक से लटकी इच्छाओं में

    बेघर दिशाओं को संकेत करता

    अधर उम्मीदों से जूझता अभिशप्त,

    सताता टूटी नींद में पूछता पहचाना मुझे!

    अगर मैं खोल दूँ अपने हाथ फैला

    क्या मिल जाएँगे मुझे दो पंख आकाश के लिए

    स्रोत :
    • रचनाकार : मोहन राणा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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