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अभिलाषाएँ

abhilashayen

अनुवाद : रापर्ति सूर्यनारायण

शिवशंकर स्वामी

शिवशंकर स्वामी

अभिलाषाएँ

शिवशंकर स्वामी

और अधिकशिवशंकर स्वामी

    1

    नाथ! हृदय को अंतहीन चल आशाओं ने

    जकड़ा तो बहु काल सताया बाधाओं ने।

    मैंने स्थिर साधना की, उन्हें जब सह सका

    गहनाशा-कांतार किसी विधि में छोड़ सका॥

    2

    इस मन ने है भवत्कृपा से प्रशांति पाई।

    इस जन की है चित्तवृत्ति पावन हो पाई।

    परिभ्रमण विपरीत पथों में चित्त करके

    देव! सदा तव चरित छुएगा पद गा करके॥

    3

    हे ईश्वर! सर्वस्व तव पदों में अर्पण कर

    सकल बाध्यता रहित हुआ मन पवित्र होकर

    अब इस मन ने विविध दुराशाओं को छोड़ा।

    पर वांछा-त्रिक तो जाएगा उससे छोड़ा॥

    4

    गायक तो मैं नहीं हुआ नाथ! कहूँ क्या?

    दुर्विधि से वाक्स्थान मंद को मिला, करूँ क्या ?

    फिर भी मैं सब समय विबुध हो सुधा भरूँगा।

    त्वन्नामाक्षर स्वांत शुद्ध कर जपा करूँगा॥

    5

    विश्व भर पूजा हुई थी, कलुषित भाषा।

    पर छूटी अणु मात्र मेरी यह अभिलाषा।

    ढूँढ़-ढूँढ़ कर शब्द काव्य रचना कर पाऊँ।

    त्वल्लीला-सत्कथा लीन मन हो सुख पाऊँ॥

    6

    मेरी है निपुणता अल्प वर चित्रकला में।

    सकल लोक परिपाल! रंग भर सुतूलिका में

    तावक मंगल कम्र-नील तन की सुंदरता

    मृदुल कल्पना पूर्ण खींच लूँ प्रियता भरता।।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक तेलुगु कविता (प्रथम भाग)
    • रचनाकार : शिवशंकर स्वामी
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 1969

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