अभी भी
abhi bhi
अभी भी उन झाड़ियों के पीछे
सदाबहार दोनों पर हँसती है
अभी भी अपनी यादों से
सेवती लजवंती बनती हैं
वैसे तुझे और मुझे देखने के लिए
अभी भी ओस की बूँदें थरथराती हैं
अधूरी कानाफूसी के लिए
अभी भी अकड़ा हुआ चंपक अकुलाता है
तेरी आईने-जैसी पीठ याद करके
अभी भी हरियाली रूठी है
तेरी पद-तलियों को चूमने
तितलियाँ ललचाती हैं
अभी भी मोगरा नशे में है
उन वैसे बालों की सुगंध से
अभी उन पत्तियों में, जल-तृण में
हमारी हँसी होती रहती है
अभी भी फीके चाँद के नीचे
मेरी आशा तरलित होती है
गीतों में का विष चढाकर
अभी भी हवा उन्मादिनी-सी बोलती है...
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 603)
- रचनाकार : वसंत बापट
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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