अब कोई रात के अँधेरे में
ab koi raat ke andhere mein
अब कोई रात के सुनसान अँधेरे में
दबे पाँव आकर दरवाज़ा नहीं खटखटाता
रात की सड़कें, यतीम हवा के लिए
थोड़ी भी विचलित नहीं होतीं
अब कोई पीछे से आकर
आँखमिचौनी नहीं खेलता
रू-ब-रू आकर निकाल लेता है पिस्तौल
कोई देर रात परेशान नहीं करता पड़ोस को
दिनदहाड़े गिरेबान पकड़कर पूछता है :
‘क्या तुम्हारा ही नाम रौशनलाल है?’
रौशनलाल तब बीवी-बच्चों साथ
दीवाली का बाज़ार करते शायद
या वैसे ही छुट्टी के दिन को रौंदते हुए
अपनी पारिवारिक ख़ुशमिज़ाजी से,
रौशनलाल की बाज़ार में शोहरत
सिक्कों और रेज़गारियों से ज़्यादा खरी
ज़्यादा चमक और खनक उसकी चहलक़दमी में
पर इस सबको बिला ग़ौर किए सामने से ही
बिना झिझक हाज़िर होकर
उससे पूछते हैं उसका नाम
वे शख़्स कभी वर्दीधारी सरकारी तमग़े पहने मिट्टी के घोड़ों पर सवार
कभी रोज़मर्रा के आम पैरहन में ही
इस तरह बिना बताए पूरे शहर पर क़ाबिज़
पूछते हैं तुम्हारा नाम रौशनलाल, हीरासिंह
मोहम्मद ख़ान या और क्या सब, इसके
अलावा और कुछ नहीं हो सकता क्या?
रौशनलाल, तुमने क्या नहीं देखे थाने?
क्या चक्कर नहीं पड़ा कचहरियों का?
लोग कहते हैं तुम पेड़ों को दरख़्त कहते हो
बीवी की बीच सड़क उसके नाम से बुलाते हो
बच्चों को नहीं भेजते नुक्कड़ पर क़वायद करने
रौशनलाल, तुम्हारा नाम तुम्हें अँधेरे में ले जाएगा
कहते हुए वे शख़्स, कहाँ से आते हैं
कहाँ चले जाते हैं, परिचितों से ही उनके चेहरे
परिचितों में ही बिला जाते हैं
वे अब देर रात आकर
इधर-उधर देखते
दरवाज़े पर दस्तक नहीं देते
उनके चेहरों पर नक़ाब नहीं
उनके हाथों में क़ानून की
नक़ली तहरीर भी नहीं।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 104)
- रचनाकार : सुदीप बॅनर्जी
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2005
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