आठवें पहर में लेटे हुए लगता है कि
बाकि सातों पहरों से लेटा ही हुआ हूँ
इसकी एड़ियों में सभी पहरों का दुख शामिल है
दिन के चारों पहर का संघर्ष
रात के चारों पहर हरने की कोशिश करते हैं
दिन के चारों पहर में माथे से टपके
पसीने की आवाज़ नहीं सुनाई देती पर आठवें पहर में
टोटी से टपकता पानी दुख बनकर टपकता है
पानी को देखने से भोजन की तृप्ति तो नहीं मिलती है
लेकिन पानी देखकर खाने की याद ज़रूर आ जाती
और कीमत भी पानी की तरह साफ़ हो जाता है पानी देखकर
इस आठवें पहर में;
जब कुत्ते बासी मुँह कबाड़ी वाले को देखकर ज़ोर-ज़ोर से भौंक रहे
आकाश में तारों की ढिभरी भुक-भुकाकर बुझने की तैयारी में है
आदमी आधी सोइ-जगी आँखों में एक भोरहरी उम्मीद बाँधकर
ख़ुद को बिस्तर छोड़ने के लिए मनाता है
जगाता है ख़ुद को आठवें पहर में।
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