आलू साक्षात् प्रेम है
नर्म है उसका स्पर्श और मीठा उसका स्वाद
जीभ से फिसलता वो कब हलक़ में
और कब दिल में
सुकून बन दौड़ने लगता है
ये कामसूत्र से आगे की घटना है
और शिव का तीसरा नेत्र खुलने से पहले की भी
उसकी उन्मुक्त अभिव्यक्ति पर कोई शास्त्र, नहीं संभव
वह स्वयं दर्शन है और उसका प्रभाव भी
कामना उसके एक फूल से दूसरे फूल की तरफ़ उड़ती तितली भर है
यदि कामदेव ने गन्ने के धनुष से फूलों के तीर नहीं
उबले आलू का चोखा और चिप्स के थाल
आत्मयोनि, श्री महादेव को प्रस्तुत किए होते
तो यह संभव था कि उल्फ़त में इतना उत्पात न होता
और न होता प्रणय गुप्त अत्याचार का माध्यम
आलू की सत्ता देवत्व और दानात्व से परे रस का संपूर्ण प्रबंध है
धरती के नीचे उसकी जड़ों ने थाम रखे हैं महाद्वीप
उसके बैंगनी फूल और पीले पुंकेसर
केसर से अधिक वैभव लिए हैं
और अफ़ीम से अधिक मादकता
उसकी आँखें इंद्र की शत आँखों से बृहद कामुक हैं
और उर्वर है उनका हर आँसू
सिर्फ़ दृष्टि से स्थापित किए हैं उन्होंने विशाल साम्राज्य
एंडीज से हिमालय तक वे सिर्फ़ आँखों के सहारे चले आए हैं
असंख्य सर्वहारा जन इंक़लाब की तलाश में
उसकी सराय में आ रहे हैं
घूँट दर घूँट पी रहे हैं इंतज़ार
मनुष्य के मनुष्य होने का।
- रचनाकार : विजया सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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