वे आग बुझाने के बाद पीपल के नीचे बने चौंतरे पर
सुस्ता रहे हैं :
कल वे आग लगाने के बाद कुछ उसकी लपटों से,
कुछ अपनी फुर्ती से थक गए थे।
वे उस सबको मौक़ा मिलने पर राख कर देना चाहते हैं
जो उनका नहीं है और कभी नहीं होगा :
रहीम की दुकान, अब्दुल का ढाबा, करीम का ठेला,
उसके बग़ल में रामस्वरूप का स्टोर
और यशोदाबाई की खोली।
जलाने-बुझाने का उन्हें लंबा अभ्यास है—
नष्ट करने का सुख वे बरसों से जानते हैं
रचने और बचाने के अवसर उन्हें कम मिले हैं।
वे आग के अलावा अफ़वाहें फैलाना बख़ूबी जानते हैं—
पान की किसी दुकान से वे आग की तरह दूर सिनेमाघरों तक,
खोलियों से कोठियों तक
अफ़वाहें फैला देते हैं ताकि
जल्दी ही लोग सड़क पर उतर आएँ;
जीने की झंझट और हँसी-ख़ुशी के सिलसिले सब थम जाएँ :
धमनियों में अदृश्य बहने वाला लहू
कुछ बाहर नज़र आने लगे।
वे चितरे हैं
जो लहू के नक़्शे और चेहरे, तरह-तरह के अमूर्त आकार खींचते हैं।
आग लगाने के बाद सब कुछ को जलते देख दु:ख उन्हें भी होता है
बुझाने के बाद कुछ अच्छा करने का ख़ुशनुमा एहसास।
वे जानते हैं कि
उनके पास कुछ भी नहीं है
न प्यार, न नफ़रत—
कुछ कर गुज़रने का हौसला भर
जिसमें वे आग लगाते, आग बुझाते हैं
और फिर चौंतरे पर बैठकर सुस्ताते हैं।
- रचनाकार : अशोक वाजपेयी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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