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80/120

80/120

कई विद्वान थे

जिनकी कविता उन्हीं तक रह गई

वे अकेले रह गए

उन्होंने नहीं बनाया पुल

या उतर सके सिंहासन से

उनकी कविता गंदी हो जाती थी कीचड़ से, धूल से

उनकी कविता कभी रोती नहीं थी, हँसती नहीं थी

मैले लोगों को गले लगाने पर उनके कपड़े गंदे हो जाते थे

कभी उन्होंने बारिश अपने हाथों पर महसूस नहीं की

उनकी कविता में इंद्रधनुष नहीं थे

नहीं उड़ती थी तितली

और ही कभी गदहे लात मारते थे

उनकी कविता हमेशा 80/120 ही रहती थी

या किसी फ़ॉर्मूले या पटरी पर चलती थी

नियमों में बँधी

इसलिए वह समय में बँध गई और उस आदमी में जो इसे लिखता था।

स्रोत :
  • रचनाकार : दीपक जायसवाल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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