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वरूण जातक

varun jatak

अज्ञात

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वरूण जातक

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    प्राचीन काल में गांधार राज्य की तक्षशिला नगरी में बोधिसत्व एक प्रसिद्ध आचार्य थे। पाँच सौ शिष्य उनके पास रहकर विद्याभ्यास किया करते थे। एक दिन उन्होंने शिष्यों को लकड़ी लाने के लिए जंगल में भेजा। वे जंगल में जाकर लकड़ियाँ चुनने लगे। उनमें से एक विद्यार्थी बहुत आलसी था। उसने वरुण का एक बहुत बड़ा वृक्ष देखकर सोचा—जान पड़ता है कि यह वृक्ष सूखा हुआ है। मैं थोड़ी देर तक इसके नीचे सो लूँ। फिर इस पर चढ़कर लकड़ियाँ तोड़कर चला चलूँगा। यह सोचकर वह अपना उत्तरीय वस्त्र बिछाकर नाक बजाता हुआ सोने लगा। जब और सब शिष्य लकड़ियाँ लेकर गुरु के आश्रम की ओर जाने लगे, तब उन लोगों को वह उस अवस्था में सोया हुआ दिखलाई दिया। उन लोगों ने उसकी पीठ पर लात मारकर उसे जगा दिया और आप चले गए। वह आलसी शिष्य उठकर आँखें मलने लगा; क्योंकि उस समय तक उसकी नींद अच्छी तरह नहीं खुली थी। उसी नींद की झोंक में वह उठकर वृक्ष पर चढ़ने लगा। पर ज्यों ही उसने एक डाल पकड़कर खींची, त्यों ही वह टूट गई और छटककर उसकी आँख में लगी। घसी समय उसने एक हाथ से तो वह आँख दबाई और दूसरे हाथ से वृक्ष की कच्ची-कच्ची डालियाँ तोड़कर नीचे फेंकीं और अंत में वृक्ष से नीचे उतरकर उन लकड़ियों की अँटिया बाँधी। इसके उपरांत वह भी गुरु के आश्रम में पहुँचा। उसके सहपाठियों ने सूखी हुई लकड़ियों का जो ढेर लगाया था, उसी ढेर पर उसने अपनी कच्ची और गीली लकड़ियाँ पटक दीं।

    एक दिन किसी ग्राम के एक निवासी के यहाँ ब्राह्मण भोजन था, जिसमें आचार्य को भी निमंत्रण था। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा—कल सब लोगों को अमुक ग्राम में चलना होगा। परंतु तुम लोग बिना कुछ भोजन किए जा सकोगे। अतः कल प्रातःकाल यागु पाक होगा। तुम लोग वही खाकर प्रस्थान करना। वहाँ पहुँचने पर सब लोगों के लिए अलग-अलग भोजन मिलेगा। वह सब भोजन लेकर तुम लोग लौट आना।

    आचार्य के आज्ञानुसार शिष्यों ने दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर दासी से कहा—हम लोगों के लिए शीघ्र ही यागुपाक करो। जब दासी लकड़ी लाने के लिए गई, तब उसे सबसे ऊपर वही कच्ची और गीली लकड़ियाँ मिली। वह वही लकड़ियाँ लाकर जलाने लगी। पर बहुत कुछ फेंकने और प्रयत्न करने पर भी आग जल सकी। इतने में सूर्योदय हो गया। उस समय शिष्यों ने कहा—विलंब हो गया। अब तो जाने का समय भी नहीं रह गया। इसके उपरांत वे लोग आचार्य के पास गए। आचार्य ने उन्हें देखकर पूछा—क्यों जी, अभी तक तुम लोग गए नहीं? शिष्यों ने कहा—जी नहीं गुरुदेव, हम लोग अभी तक नहीं जा सके। आचार्य ने पूछा—क्यों नहीं जा सके? शिष्यों ने उत्तर दिया—अमुक आलसी छात्र उस दिन हम लोगों के साथ लकड़ियाँ चुनने गया था। पहले तो जाकर वह एक वरुण वृक्ष के नीचे सो गया था। अंत में जब वह जल्दी-जल्दी वृक्ष पर चढ़ने लगा, तत्र उसकी आँख में चोट लग गई।

    वही कच्ची और गीली लकड़ियाँ उठा लाया था और उन लकड़ियों को उसने हम सब लोगों की लाई हुई सूखी लकड़ियों के ऊपर रख दिया था। दासी ने समझा कि सभी लकड़ियाँ सूखी हैं। पर उन कच्ची लकड़ियों से आग जल सकी। इसी कारण हम लोग अभी तक जा सके। उस आलसी छात्र का यह हाल सुनकर आचार्य ने कहा—एक मूर्ख के दोष के कारण तुम सब लोगों के कार्य में हानि हुई। इसके उपरांत उन्होंने इस आशय की गाथा कही—

    जो काम पहले करना चाहिए, वह काम पीछे करने वाले आलसी लोग बहुत पछताते हैं। उसका प्रमाण यह निर्बोध आलसी शिष्य है, जो वरुण की कच्ची लकड़ियाँ लाकर इस प्रकार लज्जित हुआ है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला पहला भाग (पृष्ठ 104)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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