भीमसेन जातक
bhimasen jatak
प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने किसी निगम ग्राम 1में एक उदीच्य ब्राह्मण के घर में जन्म लिया था। वयस्क होने पर उन्होंने तक्षशिला के एक प्रसिद्ध आचार्य से शिक्षा पाई थी। वे तीनों वेदों और अठारहों विद्याओं की शिक्षा पाकर समस्त शास्त्रों के सुपंडित हुए थे। लोग उन्हें चुल्ल धनुर्ग्रह पंडित कहा करते थे।
बोधिसत्व ने जो कुछ विद्या प्राप्त की थी, उसका कार्य रूप में उपयोग करने के लिए वे तक्षशिला छोड़कर अन्ध्र राज्य में गए। बोधिसत्व के जिस जन्म की यह बात है, उस जन्म में वे कुछ कुबड़े और नाटे थे। उन्होंने सोचा कि यदि मैं किसी राजा के सामने जाऊँगा, तो वह अवश्य ही मुझसे कहेगा कि तुम्हारे जैसे बौने से क्या काम हो सकेगा। इसलिए किसी लंबे चौड़े आदमी को ढूँढ़कर अपना मुखपात्र2 बनाना चाहिए। उसकी छाया में रहने से जीविका-निर्वाह में अधिक सुभीता होगा। यह निश्चय करके वे ऐसे पुरुष को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते तंतुवाय पल्ली में पहुँचे और एक बहुत ही हृष्ट-पुष्ट तंतुवाय को देखकर उन्होंने उससे पूछा—क्यों भाई, तुम्हारा नाम क्या है? उसने कहा—मेरा नाम भीमसेन है। बोधिसत्व ने कहा—तुम्हारा शरीर कितना विशाल और सुंदर है। तुम यह तंतुवाय का व्यवसाय क्यों करते हो?” उसने उत्तर दिया—बिना इसके मेरा काम जो नहीं चलता। बोधिसत्व ने कहा—अब तुम्हें यह काम करने की आवश्यकता नहीं। मैं सारे जंबू द्वीप में अद्वितीय धनुर्धर हूँ। यदि में किसी राजा के पास जाऊँगा, तो वह मेरा आकार देखकर समझेगा कि मैं किसी काम के योग्य नहीं हूँ। अतः तुम मेरे साथ चलो। राजा के पास पहुँचकर मैं तुमको ही महा धनुर्धर बतलाऊँगा। इस पर राजा तुम्हारे लिए कुछ वेतन नियत कर देंगे और बतला देंगे कि तुम्हें क्या करना होगा। मैं तुम्हारे पीछे-पीछे रहूँगा; और जब जो कुछ करना होगा, तब वह मैं तुम को बतला दूँगा। इस प्रकार तुम्हारी आड़ में मेरी भी जीविका लग जाएगी। मैं जो कुछ कहता हूँ, तुम वही करो। इससे हम दोनों सुख-पूर्वक रह सकेंगे। भीमसेन ने कहा—अच्छी बात है, ऐसी ही सही।
इसके उपरांत बोधिसत्व अपने साथ भीमसेन को लेकर वाराणसी पहुँचे। उस समय भीमसेन आगे था, और बोधिसत्व उसके बाल-भृत्य के रूप में थे। राजद्वार पर पहुँचकर बोधिसत्व ने भीमसेन के द्वारा राजा के पास अपने आने का समाचार भिजवाया।
राजा की आज्ञा पाकर बोधिसत्व और भीमसेन दोनों सभा-मंडप में पहुँचे और राजा को प्रणाम करके खड़े हो गए। राजा ने पूछा—तुम लोग किसलिए आए हो? भीमसेन कहा—महाराज, मैं धनुर्धर हूँ। समस्त जंबू द्वीप में धुनर्वेद का मेरे समान ज्ञाता और कोई नहीं है। राजा ने पूछा—यदि तुम मेरे यहाँ रहोगे, तो क्या वेतन लोगे? भीमसेन ने कहा—प्रति पक्ष एक हज़ार मुद्रा। राजा ने पूछा—तुम्हारे साथ यह कौन है? भीमसेन ने कहा—यह मेरा बाल-सेवक है। राजा ने कहा—अच्छा मैं तुम्हें अपने यहाँ नियुक्त करता हूँ।
इस प्रकार भीमसेन राजा के यहाँ नौकर हो गया और बोधिसत्व उसके सब कार्य करने लगे। उसी समय काशी राज्य के किसी वन में एक बाघ बहुत उपद्रव मचा रहा था। उसके कारण एक बहुत चलता हुआ रास्ता बिल्कुल बंद हो गया था और बहुत से लोगों के प्राण जा चुके थे। जब राजा ने यह समाचार सुना, तब उन्होंने भीमसेन को बुलाकर पूछा—क्या तुम उस बाघ को पकड़ सकोगे? भीमसेन ने कहा—महाराज, यदि में बाघ को भी न पकड़ सका, तो फिर मैं धनुर्धर ही काहे का ठहरा! राजा ने उसे पाथेय देकर बाघ पकड़ने के लिए भेज दिया।
भीमसेन ने घर जाकर यह बात बोधिसत्व से कही। बोधिसत्व ने कहा—अच्छी बात है। जाओ, बाघ पकड़ लाओ। भीमसेन ने पूछा—तुम चलोगे या नहीं? बोधिसत्व ने उत्तर दिया—नहीं, मैं तो नहीं जाऊँगा। पर तुम्हें एक उपाय बतला देता हूँ। भीमसेन ने पूछा—वह उपाय क्या है? बोधिसत्व ने कहा—तुम चटपट उस बाघ के रहने की जगह में न घुस जाना। किसी जनपद में से हज़ार दो हज़ार तीरंदाज़ एकत्र करना। जब देखो कि बाघ उठा है, तब दौड़कर एक झाड़ी में छिप जाना और औंधे होकर लेट जाना। उधर वे सब तीरंदाज़ बाघ को मार डालेंगे। जब तुम देख लो कि बाघ मर गया है, तब झाड़ी में से निकल आना। वहाँ से निकलते समय दाँत से कोई लता तोड़कर हाथ में ले लेना और उस मरे हुए बाघ के पास पहुँचकर लोगों पर ख़ूब बिगड़ना कि—'इस बाघ को किसने मार डाला! मैंने तो सोचा था कि इसे जीवित ही पकड़ लूँगा और इसी लता में बाँधकर साधारण गौ-बैल की तरह से इसे खींचता हुआ राजा के पास ले जाऊँगा। इसीलिए मैं लता लाने झाड़ी में चला गया था। पर मेरे लता लाने से पहले ही तुम लोगों ने इसे मार डाला। बताओ, किसने इसे मारा।' तुम्हारी इस प्रकार की बातें सुनकर सब लोग डर जाएँगे और कहेंगे—'प्रभु, आप कृपा करके यह बात राजा से मत कहिएगा।' और कदाचित् वे लोग तुमको थोड़ा बहुत धन भी देंगे। राजा समझेंगे कि तुम्हीं ने बाघ को मारा है। अतः वे भी तुम्हें बहुत सा धन पुरस्कार में देंगे।
भीमसेन ने कहा—वाह, यह तो बहुत अच्छी बात है। इसके उपरांत उसने बोधिसत्व के परामर्श के अनुसार सब काम किए जिससे वह बाघ मारा गया और रास्ता खुल गया। बहुत से लोगों को अपने साथ लेकर वह वाराणसी पहुँचा और राजा की सेवा में उपस्थित होकर बोला—महाराज, बाघ मार डाला गया। अब उस वन में पथिकों के लिए और किसी प्रकार के उपद्रव की संभावना नहीं है।
एक दिन समाचार आया कि किसी राजपथ में एक भैंसा बहुत उपद्रव मचा रहा है। राजा ने भीमसेन को बुलाकर भैंसा मारने के लिए भेजा। इस बार भी उसने बोधिसत्व के परामर्श के अनुसार चलकर कौशल से भैंसे को मार डाला। लौटने पर राजा ने फिर उसे बहुत सा धन पुरस्कार-स्वरूप दिया।
इस प्रकार धीरे-धीरे भीमसेन के पास बहुत सा धन हो गया। उस धन के मद से मत्त होकर वह बोधिसत्व की अवज्ञा करने लगा। अब वह उनके परामर्श की उपेक्षा करने लगा और कहने लगा—तुम्हारे बिना भी मेरा काम चल जाएगा। क्या तुम यह समझते हो कि तुम्हीं आदमी हो, और कोई आदमी ही नहीं है?
इसके कुछ ही दिनों के उपरांत एक बार एक शत्रु राजा ने वाराणसी पर आक्रमण करके ब्रह्मदत्त से कहला भेजा—या तो राज्य छोड़ो या युद्ध करो। ब्रह्मदत्त ने उसी भीमसेन को उस राजा के साथ युद्ध करने को भेजा। भीमसेन सिर से पैर तक सैनिक के वेश में सुसज्जित होकर एक अच्छे हाथी पर सवार हुए। बोधिसत्व को आशंका हुई कि कहीं युद्ध में भीमसेन मारा न जाए इसलिए वे भी सब प्रकार से तैयार होकर हाथी पर उनके पीछे बैठ गए। बहुत से सैनिकों से घिरकर वह हाथी नगर के बाहर निकला और शत्रु राजा की सेना के सामने जा पहुँचा। परंतु रणभेरी का शब्द सुनते ही भीमसेन मारे भय के काँपने लगा। बोधिसत्व ने कहा—'यदि तुम इस हाथी की पीठ पर से गिर पड़े, तो अवश्य ही मारे जाओगे। उसे गिरने से बचाने के लिए उन्होंने रस्सी से कसकर बाँध दिया। किंतु रणभूमि का दृश्य देखकर मृत्यु के भय से भीमसेन ने उस हाथी की पीठ पर ही मल त्याग करके उसे दूषित कर दिया। उस समय बोधिसत्व ने कहा—वाह! तुम्हारी पिछली बातों से इस बात का मेल कैसे मिलेगा? उस समय तो तुम अपने आपको बहुत बड़ा वीर बतलाते थे; और अब तुमने हाथी की पीठ पर मल त्याग कर दिया! इसके उपरांत उन्होंने नीचे लिखे आशय की गाथा कही—
कैसे आश्चर्य की बात है कि उस समय तो तुम इतना गर्व करते थे; और यहाँ रण-क्षेत्र में आकर तुमने मल-त्याग कर दिया। तुम पहले जो कुछ कहा करते थे और अब तुमने जो कुछ किया है, उन दोनों में मुझे कुछ भी सामंजस्य नहीं दिखाई देता।
भीमसेन को इस प्रकार भर्त्सना करके बोधिसत्व ने उसे आश्वासन देने के लिए कहा—तुम डरो मत। मेरे रहते किसी की शक्ति नहीं है जो तुम्हें मार सके। यह कहकर उन्होंने भीमसेन को हाथी की पीठ पर से उतार दिया और कहा—तुम स्नान करके घर जाओ।
इसके उपरांत उन्होंने संकल्प किया कि अब मैं यशस्वी होऊँगा और वे युद्ध में प्रवृत्त हुए। सिंह की भाँति गरजते हुए उन्होंने शत्रु के व्यूह को भेद डाला; शत्रु राजा को जीते जी पकड़कर क़ैद कर लिया और वाराणसी के राजा के पास ले आए। उन्हें देखकर ब्रह्मदत्त बहुत ही संतुष्ट हुए और उन्होंने बोधिसत्व को बहुत कुछ पुरस्कार दिया। तब से सारे जंबू द्वीप में चुल्ल धनुर्ग्रह पंडित के यश के गीत गाए जाने लगे। बोधिसत्व ने भीमसेन को बहुत सा धन देकर विदा किया और आजन्म दान-पुण्य आदि करते हुए समय पर वे अपने कर्मों का फल भोगने के लिए दूसरे लोक को चले गए।
- पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 131)
- प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय
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