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कला और भारतीय चित्र-निरूपण

kala aur bharatiy chitr nirupan

कन्नीमल एम.ए.

कन्नीमल एम.ए.

कला और भारतीय चित्र-निरूपण

कन्नीमल एम.ए.

और अधिककन्नीमल एम.ए.

    प्रकृति की शोभा के अनुकरण का नाम कला है। प्रकृति स्वाभाविक और अनियमित है। कला नियमबद्ध और कृत्रिम है। प्रकृति मनुष्यकृत सब नियमों का उल्लघंन कर अपनी निरंकुश शोभा में विलास करती है और उन सब अल्प सीमाओं के बंधनों का उपहास करती है जिनसे मनुष्य उसे अपनी धृष्टता के कारण बाँधना चाहता है। 

    पर्वतों के सदैव स्वच्छ हिमाच्छादित उच्च शिखर, जो देवताओं के पावन आकाशमंडल में अभिमान से अपना मस्तक उठाए हुए हैं; असीम विस्तृत गिरि-घाटियाँ, जो मनोहर हरियाली तथा नाना प्रकार की वृक्षावलियों से अलंकृत हैं, मनमोहक पक्षियों के मधुर और सुंदर गान से गूँज रही हैं और जिनके भिन्न-भिन्न भागों में मानवीय कृत्रिम विद्या के दुष्प्रभावों से मुक्त, मस्त तथा प्रफुल्लित नवयुवक गड़रिये भेड़ों के झुंड चराते हुए अपने ग्रामीण ढँग में चित्ताकर्षक गवाँरू गीत गा रहे हैं तथा कभी-कभी वंशी की सुहावनी ध्वनि को भी छेड़ देते हैं; विशाल विस्तृत असीम जलाशय और झीलें तथा उनके स्वच्छ वक्षस्थल पर इतस्तत: स्थित छोटे-छोटे मनोहर द्वीप, जिनकी अक्षत भूमि पर मनुष्य का कभी पदार्पण भी नहीं हुआ है और जो प्रकृति की पवित्र निर्मल पवन का पान कर रहे हैं; अंधकारमय निःसीम वन, जो वृक्षावलियों की लता-मंडपों से गाढ़ आच्छादित हैं, जिनकी भूमि प्रचंड मार्तण्ड की तीव्र किरणें चुंबन करने को असमर्थ हैं और जो उन जंगली भयंकर और विविध रूपाकार पशुओं से परिपूर्ण हैं जिन्हें सभ्य मनुष्य ने कभी आँखों से भी नहीं देखे; गंभीर भयानक विकराल काल मुख सदृश गिरिगह्वर और विवर, जो माता वसुंधरा के हृदय को विदीर्ण किए हुए खुले पड़े हैं और जिनकी कंदराओं और गुफाओं में जंगली हिंसक जानवर अपने शिकार की टोह में घात लगाए बैठे रहते हैं; असीम अतुल, अनंतसमुद्र जो कभी निश्चल शांति में ध्यानावस्थित रहता है, कभी प्रचंड प्रकोप में गर्जना करता है और कभी स्वाभाविक आनंदोन्माद में पर्वत शिखर जैसी ऊँची कुलाँचे मारता है तथा उन विशालकाय जंगी जहाज़ों को जो उनके वक्षस्थल पर लात मारकर शत्रु सेना का विध्वंस करने को जाते हैं, टुकड़ों-टुकड़ों में चूर-चूर कर डालता है—यह सब उसी प्रकृति का रूप है जो सदैव निर्बद्ध अकुंठित अदम्य अपराजित और असीम है।

    यदि प्रकृति से उसकी निरंकुशता, भयानकता, विशालता, वैषम्यता, अकृत्रिम शोभा, मधुर-संगीत रसिकता, भव्य दिव्य रमणीक दृश्यता और नेत्र-विस्मयकृत विविध रूप-रंग-संपन्न शोभा निकाल दी जाए तो जो कुछ शेष रह जाएगा, वह कला है। वह प्रकृति का दीन-हीन दुर्बल और निर्जीव प्रतिबिंब है।

    कला शब्द ललित कलाओं का द्योतक है। इनमें मूर्ति-निर्माण-कला, चित्रण-कला, संगीत-कला, कविता, नृत्य-कला आदि मुख्य हैं। मनुष्य, पशु, पक्षी और प्राकृतिक दृश्यों के रूपों की नक़ल करने का नाम मूर्ति-निर्माण-कला है। चैतन्य और जीवित वस्तु की मूर्ति को जड़-जीव-रहित पाषाण अथवा अन्य ऐसी चीज़ पर नक़ल कर दिखाना इस कला का उद्देश्य है। चित्रण-कला प्रकृति के जीते-जागते कृत्यों को काग़ज़ या अन्य पदार्थ पर नक़ल कर लेने की चेष्टा करती है, पर वह अपने कार्यों में के चेतन का चमत्कार करने से असमर्थ है। संगीत-कला पशु-पक्षियों की बोली तथा उनके स्वाभाविक गान के अनुकरण करने का प्रयत्न करती है और समस्त विश्व में व्याप्त ब्रह्मनाद को अपने वश में कर व्यक्त करना चाहती है। जिस प्रकार मानव हृदय में आकाश तथा अरण्य-गान से भाव उत्पन्न होते हैं, वैसे ही जीते-जागते भाव वह अपनी चेष्टाओं से जागृत करना चाहती है। कविता का उद्देश्य जीवन के आदर्श दृश्यों का चित्रण करना है। वह इस चित्रण को ऐसे वाक्यों और उद्गारों से ललित और सुंदर बनाती है जो चित्ताकर्षक, आनंदप्रद, उच्चभावोत्पादक, चमत्कार-युक्त, दिव्यभाव-वर्द्धक, उत्साहद्योतक और अध्यात्म जागृत-कृत होते हैं।

    संसारान्तर्गत प्राकृतिक लय को अभिव्यक्त करना नृत्य-कला का उद्देश्य है। संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें लय न व्याप्त हो। चैतन्य पदार्थों में यह लय उसी परिणाम में व्याप्त है जितनी कि उनमें चैतन्य-शक्ति है। जड़ पदार्थों में लय अवश्य है, पर दृष्टिगोचर नहीं है। पक्षी नृत्य करते हैं, पशु नृत्य करते हैं, नर-नारी नृत्य करते हैं और देवता नृत्य करते हैं। चेतन-विशिष्ट कोई प्राणी ऐसा नहीं जो अपने हार्दिक आनंद को नृत्य द्वारा अभिव्यक्त न करता हो। प्रकृति में छिपे हुए लय को व्यक्त करना और चैतन्य रूपों में उसके प्रभाव की वृद्धि करना नृत्य-कला का उद्देश्य है।

    यदि प्रत्येक कला का वर्णन अलग-अलग किया जाए तो एक ग्रंथ बन जाए। अतएव मैं इस लेख में केवल भारतीय चित्रण-कला ही का कुछ परिचय देता हूँ।

    भारतीय चित्रकार नक़्शा बनाने में बहुत चतुर नहीं हैं और न वे प्राकृतिक दृश्यों को ही आधुनिक नियमों से चित्रण करने में कुशल हैं। हाँ, वे रूप और आकार के चित्रण करने में अत्यंत दक्ष हैं। उनका प्रेम जड़ पदार्थों से नहीं है। उनका मन चैतन्य पदार्थ और उनके जीते-जागते कार्यों के चित्रण करने में लगता है। इसी बात में उनकी प्रसिद्धि और ख्याति है। उनके चित्रों की जाँच करना प्रत्येक मनुष्य का काम नहीं। उनके चित्र अशिक्षित नेत्र वालों के लिए नहीं हैं। ये चित्र भारतीय धर्म, साहित्य और तत्त्वज्ञान से संबंध रखते हैं। जो इन विषयों से अपरिचित हैं, वे इन चित्रों के गुण-दोष की जाँच नहीं कर सकते और न वे इनकी वास्तविक शोभा ही का अनुभव कर सकते हैं। भारतीय चित्र प्रायः निम्न प्रकार के होते हैं:

    1. देवी-देवताओं के चित्र। 
    2. इतिहास-पुराणान्तर्गत महान् पुरुषों और आदर्श महिलाओं के चित्र। 
    3. राग-रागनियों के रूप-संबंधी चित्र। 
    4 नायक-नायिका-भेद-संबंधी चित्र। 
    5. उपर्युक्त विषयों के अन्तर्गत अन्य वस्तुओं के चित्र। 

    इन चित्रों की जाँच वही कर सकता है जो इन विषयों का साहित्य जानता है। भारतीय चित्रकार की प्रधान चेष्टा चित्र-लिखित नर-नारी के या हृदय-स्थित भावों को व्यक्त करने की रहती है। केवल बाहरी सुंदर शरीर और रूप खींच देने से उसे संतोष नहीं होता। वह जिसका चित्र बनाता है, उसके हृदय के गुप्त से गुप्त भावों की खोज कर बाहर चित्र में दिखाना चाहता है। अन्य देशों के चित्रकारों का उद्देश्य शारीरिक अंग-प्रत्यंगों को और आदर्श बनाना है, पर भारतीय चित्रकार भीतरी भावों की अभिव्यक्ति करने ही में कला-कौशल समझता है। जिस प्रकार यूनान और रोम के शिल्पकार और चित्रकार अवयवों को शास्त्रीय नियमानुकूल बनाने में भरपूर चेष्टा करते थे, वैसे ही भारतीय चित्रकार भावों की अभिव्यक्ति करने में प्रयत्न करते हैं। वे जैसा मनुष्य या जैसी स्त्री वास्तव में है, वैसी की वैसी ही स्त्री चित्र में भी बनाते हैं। अपने नायक या नायिका का शरीर अकृत्रिम नियमों से अधिक सुंदर या मनोहर चित्रित करने की चेष्टा वे नहीं करते; क्योंकि वे जानते हैं कि ऐसा करने में उसकी वास्तविकता जाती रहती है। आप कोई भी भारतीय प्राचीन चित्र देखिए, उसमें पूर्वोक्त बातें अवश्य मिलेंगी।

    चित्र में नाना प्रकार के रंगों का मेल करना भी भारतीय चित्रकारों की विशेषता है। इस प्रकार के रंग विदेशी चित्रकार नहीं भर सकते। प्राचीन चित्रों के सुनहरे रंगों को देख कर आजकल के चित्रकार हक्का-बक्का हो जाते हैं। इस प्रकार के रंगों को कलों द्वारा छापना असंभव है। मेरे कहने का यह अभिप्राय है कि यदि आप किसी प्राचीन चित्र को, जिसमें सुनहरा रंग भरा है, छापना चाहें तो वह जैसा का तैसा कभी नहीं छपेगा। उसका सुनहरा रंग ज्यों का त्यों न उतरेगा। अभी तक ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं मालूम हुई है जिससे अन्य रंगों की भाँति सुनहरा रंग भी अच्छी तरह छापा जा सके। मुझे इस विषय का अधिक ज्ञान नहीं है। परंतु जब कभी मैंने किसी सुनहरे प्राचीन चित्र को छपवाना चाहा है, तब कारीगरों ने कह दिया है कि सुनहरा रंग जैसा का तैसा नहीं उतर सकता। इसी अनुभव पर मैंने उपर्युक्त बात लिखने का साहस किया है।

    जो बातें मैंने ऊपर बताई हैं, उनको ध्यान में रखने से भारतीय प्राचीन चित्रों की शोभा हृदयंगम करने में बड़ी सहायता मिलती है। उन चित्रों का असली महत्त्व तो तभी मालूम होता है जब दर्शक उन चित्रों से संबंध रखने वाले साहित्य से सुपरिचित हो।
    स्रोत :
    • पुस्तक : सरस्वती (पृष्ठ 162)
    • रचनाकार : कन्नीमल एम.ए.
    • संस्करण : 1921

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