अलख अरूप अबरन सो करता। वह सब सों सब ओहि सों बरता॥
परगट गुपुत सो सरब बियापी। घरमी चीन्ह चीन्ह नहिं पापी॥
ना ओहि पूत न पिता न माता। ना औहि कुटुँब न कोइ सँग नाता॥
जना न काहु न कोइ औइँ जना। जहँ लगि सब ताकर सिरजना॥
ओइँ सब कीन्ह जहाँ लगि कोई। वह न कीन्ह काहू कर होई॥
हुत पहिलेइँ औ अब है सोई। पुनि सो रहहि रहहि नहिं कोई॥
अउर जो होइ सो बाउर अंधा। दिन हुइ चार मरइ करि धंधा॥
जो ओइँ चहा सो कीन्हेसि करइ जो चाहइ कीन्ह।
बरजनहार न कोई सबइ चहइ जिअ दीन्ह॥
वह सृष्टि कर्ता किसी से लखा नहीं जाता, वह रूप और रंग से रहित है। यह सब प्राणियों द्वारा व्यवहार कर रहा है और सब प्राणी उसकी सत्ता से व्यवहार में प्रवृत्त हैं। वह प्रकट या गुप्त सबमें समाया हुआ है। केवल धर्मात्मा उसे पहचानते हैं, पापी नहीं पहचान पाते न कोई उसका पुत्र है, न पिता, न माता है। न उसका कोई कुटुंब है, और न उसका किसी से नाता है। उसने किसी को अपनी कोख से नहीं जना और न उसे ही किसी ने जन्म दिया है। फिर भी जहाँ तक सब कुछ है, उसी की रचना है। जहाँ तक कोई भी व्यक्ति (व्यष्टि रूप में) है, उसी ने सब बनाए हैं। वह किसी का रचा हुआ नहीं है। वह पहले भी था और अब भी वही है। भविष्य में वही रहेगा जब अन्य कोई नहीं रह जाएगा। और जो होने का गर्व करता है वह बावले-अंधे के समान है, क्योंकि वह चार दिन तक होकर और धंधा पीटकर मर जाता है।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 6)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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