चित्रावली सौंदर्य : दो
chitrawali saundarya ha do
प्रथहिं कहौं केस की सोभा, पन्नग जनों मयलगिरि लोभा।
दीरघ विमल पीठि पर परे, लहर लेहि विषधर विषभरे॥
कच अहिं डसा जनम नहिं जागा, मंत्र न मानै मूरि न लागा।
बिथुरी अलक भुअंगिनी कारी, कै जनु अलि लुबुधे फुलवारी॥
कै जबु बदन तरनि जौ तपा, सिमिटि सुमेरु पाछु तम छुपा।
किमि कच बरनौं राजकुमारा, मति न समाइ देखि अंधियारा॥
मृदमददास आव तेहि केसा, पौन जाइ लइ देस विदेसा।
सिरजी तन विधि स्यामता, जब जग सिरज लीन्ह।
ते कच सिरजे सारलै, सेष बांटि के नीन्ह॥
पहले मैं चित्रावली के केश की शोभा का वर्णन करता हूँ। उनके बालों को देखकर ऐसा लगता है मानो सर्प चंदन पर लुब्ध हो गए हैं। वे बहुत लंबे हैं और श्वेत पीठ पर पड़े हुए ऐसे लहराते हैं जैसे ज़हरीले सर्प लहरा रहे हों। केश रूपी नाग जिसे एक बार डस ले, वह इस जन्म में तो उठ नहीं सकता क्योंकि उसका उपचार न मन से हो सकता है और न जड़ी-बूटी का प्रभाव हो सकता है। उसके बिखरे बाल काली सर्पिणी है अथवा मानो फुलवारी पर लुब्ध हुए भौंरे हैं। अथवा ऐसा लगता है मानो मुख जो सूर्य है, वह सुमेरू के समान दीप्त रंग को समेट बाल रूपी अंधकार के पीछे जा छिपा हो। उसके बालों का कैसे वर्णन किया जा सकता है! उसके कारण फैले हए अंधकार को देखकर बुद्धि उसमें समाती ही नहीं। उन केशों में से कस्तुरी वायु देश-विदेश में संचरित है। ईश्वर ने जब संसार का निर्माण किया था, तभी श्यामलता का सृजन किया था। उस श्यामलता का सार तत्व लेकर उसने बालों की श्यामलता का सृजन किया और शेष को बाँट दिया।
- पुस्तक : चित्रावली (पृष्ठ 77)
- संपादक : माया अग्रवाल
- प्रकाशन : कला मंदिर
- संस्करण : 1985
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