चित्रावली सौंदर्य : छह
chitrawali saundarya ha chhah
अब सुनु बरनौं ग्रीव सुहाई, विधि कर चाक भंवाइ चढ़ाई।
अंगुरिन बीच रही जो रेखा, सोई चीन्ह रेखा जो देखा॥
केलि समै कौतर की रीसा, तत बिन चलो लाइ मुइं सीसा।
नावत मोर गींव सर जोवा, तबहीं सीस पाइ परि रोवा॥
संख न सम भा सांझ संकारा, तातें जहं तहं करै पुकारा।
तबही छरन जान अपछरा, भूषन लाग न बांधै छरा॥
वोहीं कंठ जानु जिन्ह दीठी, अमिरित चाहि न पूरै मीठी।
सोहत हाँस जराउगर, बदन हेठ निकलंक।
सर न मयंक सूर जनु, दुरत राहु के संक॥
अब मैं तुमको चित्रावली की सुंदर गर्दन के बारे में बताता हूँ। विधाता ने उसे स्वयं ही चाक पर घुमाकर बनाया है। विधाता की उंगलियों के बीच में जो रेखाएँ हैं वे ही उसकी गर्दन पर उभरी रेखाओं के सदृश्य दीख पड़ती हैं। केलि के समय कबूतर उसकी गर्दन से स्पर्धा करना चाहता है, किंतु न कर पाने पर शीघ्र ही उसका सिर भूमि की ओर शर्म से झुक जाता है। नाचते हुए मोर की गर्दन भी उसकी बराबरी नहीं कर पाती, इसलिए वह भी रोता है। उसकी गर्दन की बराबरी शंख कर सकते हैं, इसलिए संध्या के समय इधर-उधर पुकार करके संकेत करते हैं। अप्सरा की गर्दन भी उसकी गर्दन की बराबरी नहीं कर सकती, यह जानकर उसमें हीन भावना आ जाती है। वह न आभूषण पहनती है और न नीबी बांधती है, अर्थात् सब-कुछ उतार कर फेंक देना चाहती है। उसी कंठ को जिसने देख लिया, उसे न अमृत की चाह रहती है और न किसी मिठाई की। उसके गले में जड़ाऊ हंसली सुशोभित होती है। इस पर भी मुख हठपूर्वक निष्कलंक बना रहता है। उसकी बराबरी सूर्य या चंद्रमा भी नहीं कर सकते, क्योंकि वे राह के डर से छिपे रहते हैं।
- पुस्तक : चित्रावली (पृष्ठ 90)
- संपादक : माया अग्रवाल
- प्रकाशन : कला मंदिर
- संस्करण : 1985
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