चित्रावली सौंदर्य : एक
chitraavalii saundarya- (.ek)
लखो लिलाट दूजि कर चंदा, दूजि छाडि जग वो कहं बंदा।
भौंह धनुष बरुनी विषवाना, देखि मदन धनु गहत लजाना॥
बरुनी बान गडे जेहि हीये, बहुरि न निकस जब लहुं जीये।
लोचन विमल जानु सम जोवा, निमिष जो देख जनम भर रोवा॥
अधर सुरंग जन खाए तंबोला, अबहीं जनु चाहै हसि बोला।
लंक छीन जेहि भुंग लजाहीं, कोउ कह आहि कोऊ कह नाहीं॥
फीली चरन सराहौं काहा, अबहिं रहसि चलै जनु चाहा।
गुपुत रहै चितसारि महं, जग जाने सब कोइ।
सपने जो कोइ देखई, सौतुक जोगी होइ॥
चित्रावली का ललाट दूज के चाँद के समान दिखाई पड़ता है। दूज के चाँद को छोड़कर संसार में कोई और नहीं है जिससे उसकी तुलना की जा सके। उसकी भौंहें धनुष के समान हैं तथा पलकों के बाल ज़हर से बुझे हुए बाण के सदृश्य हैं, जिन्हें देखकर कामदेव का धनुष भी लजा जाता है। बरौनी रूपी बाण जिसके हृदय में गड़ जाते हैं, वह जब तक जीवित रहता है, उसके हृदय में ही कसकते रहते हैं। उसके नेत्र स्वच्छ हैं और ऐसा लगता है मानो वह सदैव कुछ खोजते रहते हैं। जिसने उन नेत्रों को एक क्षण के लिए भी देख लिया, वह जन्म भर रोता है अर्थात् उन्हें देखने के लिए विकल हो जाता है। उसके होंठ सुंदर रंग के ऐसे लाल-लाल हैं मानो उसने पान खा रखा हो। उसके अधरों पर स्मिति सदैव बनी रहती है, जिसे देखकर ऐसा लगता है मानो वे अभी हँसकर बोल पड़ेंगे। उसकी कमर इतनी पतली और लचीली है कि उसके समक्ष सर्प भी लजा जाते हैं। कोई कहता है कि यह कमर है और कोई कहता है नहीं है। उसके चरण और पिंडली की क्या सराहना करूँ, उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो वह अभी गुप्त स्थान की ओर चलना चाहते हैं (अर्थात् चित्र वाले प्रेमी पुरुष की उतावली से प्रतीक्षा कर रही है)। सारा संसार इस बात को जानता है कि वह अपनी चित्रशाला में गुप्त रूप से रहती है। जो कोई भी उसे अपने सामने देखता है या प्रत्यक्ष दर्शन करता है, वह तो कोई योगी ही हो सकता है।
- पुस्तक : चित्रावली (पृष्ठ 58)
- संपादक : माया अग्रवाल
- प्रकाशन : कला मंदिर
- संस्करण : 1985
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