नागमती वियोग (दस)
nagamti wiyog (das)
लागेउ माँह परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला॥
पहल पहल तन रुई जो झाँपे। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ॥
एहि मास उपजै रस मूलू। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू॥
नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू॥
टूटहिं बुंद परहि जस ओला। बिरह पवन होइ मारै झोला॥
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा। गियँ नहिं हार रही होइ डोरा॥
तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ के चहै उड़ावा झोल॥
माघ का महीना लग गया। अब पाला पड़ने लगा। जाड़े की ऋतु में विरह काल हो गया। शरीर के अंग-अंग को जैसे-जैसे रुई से ढकते हैं वैसे-वैसे हहर-हहर कर हृदय अधिक काँपता है। हे प्रिय, सूर्य के समान आकर तपो। उसके बिना माघ में जाड़ा नहीं दूर होता। इसी मास में उस रस का मूल उत्पन्न होता है जो वसंत में वनस्पतियों पर फूल रूप से प्रकट होता है। मेरे यौवन रूपी पुष्प का रस लेने वाले तुम भौंरे हो। मेरे नेत्रों से आँसू ऐसे चू रहे हैं जैसे माह की दृष्टि में जल। उससे शरीर जलता है और वस्त्र बाण से लगते हैं। बूँदें टूटकर ओले जैसी गिरती हैं। विरह पवन बनकर उन ओलों का झोला मारता है। अब किसका शृंगार किया जाए! और कौन पटोरा पहने? मेरे कंठ में हार नहीं रहा। मैं उस हार का डोरा मात्र हो गई हूँ।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 350)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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