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बारहमासा (फाल्गुन)

barahmasa (phalgun)

कुतुबन

कुतुबन

बारहमासा (फाल्गुन)

कुतुबन

फागुन फागु जगत सब खेला। होरी मांझ मैं रे जिउ मेला।

जरि कै भसम होउं उहि आसा। मकुहूँ उड़ाइ जाउं पिय पासा।

बिरह आइ असि चांचर पारी। रकत रोइ सैदुर रतनारी।

तेहि पर अवधि पवन संतावै। आंगन सेज मंदिर नहि भावै।

आहर गएउ बसंत सुहावा। रहा छाइ पिउ भवा परावा।

फागु बसंत सुहावन यह जोबन मैंमंत।

तरुअर पात जो झरि परे अजहुं आएउ कंत॥

फागुन में समस्त जगत ने फाग खेला, तो मैंने अपने जीव को होलिका में डाल दिया। मैं उसकी आशा में जल कर भस्म हो जाऊँ, कदाचित् इसी युक्ति से मैं उड़ कर प्रिय के पास पहुँच जाऊँ। विरह ने आकर ऐसी चांचर मचाई कि मैं रक्त के आँसू रो कर सेंदुर-सी लोहित वर्ण की हो गई। उस पर पवन संतप्त कर रहा था और आँगन, शैया और मंदिर नहीं भा रहे थे। वसंत निष्फल चला गया और मेरा प्रिय किसी दूसरे का हो उसके देश में छा रहा। फाग है, सुहावना वसंत है और यह मदमत्त यौवन है। वृक्षों में जो पत्ते थे वे झड़ पड़े हैं। किंतु प्रिय! तू आज भी नहीं आया है।

स्रोत :
  • पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 280)
  • संपादक : माताप्रसाद गुप्त
  • रचनाकार : कुतुबन
  • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
  • संस्करण : 1968

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