वह भी वैसी सख़्त सज़ा के...
wo bhi vaisi sakht saza ke. . .
वह भी वैसी सख़्त सज़ा के ही क़ाबिल है,
तन के साथ गुनाहों में मन भी शामिल है!
दिलवालों की इस दुनिया में इतने मुफ़लिस,
शक होता है उनके भीतर सचमुच दिल है!
ऊब उदासी और अकेलेपन का मजमा,
लगती तो महफ़िल है पर कैसी महफ़िल है?
हँसते-हँसते रो पड़ता है अब अक्सर वो,
कहने भर को ही अब तो वह ज़िंदादिल है!
जीवन का असली मतलब तो उससे पूछो,
जीते जी जो बस मरता रहता तिल-तिल है!
दिलवालों की बेशक कहते आए हैं सब,
दिल्ली तो कल जैसी ही अब भी बेदिल है!
- पुस्तक : ज्योति जगाए बैठे हैं (पृष्ठ 137)
- रचनाकार : कमलेश भट्ट कमल
- प्रकाशन : प्रकाशन संस्थान
- संस्करण : 2022
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