इस तरह ज़िंदगी को सजाते रहे
is tarah zindagi ko sajate rahe
इस तरह ज़िंदगी को सजाते रहे
ख़ार में रहके भी खिलखिलाते रहे
प्यार सच था मगर, थी ग़रीबी बहुत
फ़ासलों में उसे हम निभाते रहे
लौटना उनकी फ़ितरत न थी दोस्तों
फिर भी ताउम्र उनको बुलाते रहे
रेत थी, शाम थी, याद थी आपकी
हम घरौंदे बनाते, मिटाते रहे
आदमी हो मुकम्मल यही सोचकर
अपनी तस्वीर बरसों बनाते रहे
- रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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