किसी के ख़्वाब मिट्टी हो रहे हैं, कौन समझेगा
kisi ke khwab mitti ho rahe hain, kaun samjhega
लक्ष्मण गुप्त
Laxman Gupta
किसी के ख़्वाब मिट्टी हो रहे हैं, कौन समझेगा
kisi ke khwab mitti ho rahe hain, kaun samjhega
Laxman Gupta
लक्ष्मण गुप्त
और अधिकलक्ष्मण गुप्त
किसी के ख़्वाब मिट्टी हो रहे हैं, कौन समझेगा
कहीं मिट्टी पे बच्चे सो रहे हैं, कौन समझेगा
वो लाशों की तिजारत का पुराना ही खिलाड़ी है
उसी के सामने सब रो रहे हैं, कौन समझेगा
इधर मरना, उधर मरना कहाँ उसको ठिकाना हो
निज़ामी हाथ अपना धो रहे हैं, कौन समझेगा
उसे महफ़ूज रखने का दिलासा ठीक था लेकिन,
फ़सल अब नफ़रतों की बो रहे हैं, कौन समझेगा
किसी की आँख ने मंज़र कभी ऐसा न देखा था
बदन पर लाश ख़ुद की ढो रहे हैं, कौन समझेगा
- रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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