जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने
jab dard baDha to bulbul ne
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
दो बोल सुने ये फूलों ने मौसम का घूँघट खोल दिया
बुलबुल ने छेड़ा हर दिल को, फूलों ने छेड़ा आँखों को
दोनों के गीतों ने मिलकर फिर शमा दिखाई लाखों को
महफ़िल की मस्ती में आकर
सब कोई अपनी सुना गए
जब काली कोयल शुरू हुई, पंचम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
धरती से अंबर अलग हुआ, कानों में सरगम लिए हुए
अंबर से धरती अलग हुई, होंठों पर शबनम लिए हुए
तारों से पहरे दिलवाकर
आकाश मिला था धरती से
किरनों का बचपन यों मचला, नीलम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
हों द्वार झरोखे या कलियाँ, जीवन है खुलने-खिलने में
पलकें हों या काली अँखियाँ, जीवन है हिलने-मिलने में
तारों के छुपते-छुपते ही
किरनों ने छू जो दिया उन्हें
शरमाकर मुस्काई कलियाँ, शबनम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
नज़रों के तीर बहुत देखे, तेवर देखे, झिड़की देखी
मुश्किल से ही खुलने वाले घूँघट देखे, खिड़की देखी
ऐसों को ही देखा हमने
फिर प्यार किसी से होने पर
मुख चाँद-सितारों से भरकर रेशम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
काली आँखों का ताजमहल अंदर से गोरा-गोरा है
अंदर है झिलमिल दीवाली बाहर से कोरा-कोरा है
भादों की रातों में मिलकर
जब भी दो नयना चार हुए
उठ-उठकर काली पलकों ने, पूनम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने सरगम का घूँघट खोल दिया
सावन में नाचा मोर मगर, सरगम न हुआ, पायल न हुई
नज़रें तो डालीं लाखों ने पर एक नज़र घायल न हुई
यह नाच अधूरा प्रियतम का
देख न गया तो बादल ने
छितरा दी पायल गली-गली, छमछम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
अपना है ऐसा प्रियतम जो, घट-घट में छुपता फिरता है
वह प्यास जागकर जन्मों की पनघट में छुपता फिरता है
लग गई प्रीति तो हमने भी
नित उसे बसाकर आँखों में
ख़ुद मुँह पर घूँघट डाल लिया प्रियतम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
फूलों ने खिलकर बता दिया, क्या चीज़ बहारें होती हैं
दीपक ने जलकर बता दिया, ऐसे भी होते मोती हैं
जिसने भी जग में जन्म लिया
है चाँद-सितारों का टुकड़ा
पल भर भी चमका जुगनू तो आलम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने सरगम का घूँघट खोल दिया
मंज़िल है सबकी एक यहाँ, मन ठोकर खाए कहाँ-कहाँ
है एक ठिकाना तो चुनरी रँगवाई जाए कहाँ-कहाँ
हँस-हँसकर दो दिन मरघट में
जल जाने वाले फूलों ने
पल-पल का पर्दा छोड़ दिया, हरदम का घूँघट खोल दिया
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
- पुस्तक : संकलित कविताएँ (पृष्ठ 130)
- संपादक : नंदकिशोर नंदन
- रचनाकार : गोपाल सिंह नेपाली
- प्रकाशन : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
- संस्करण : 2013
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