टूट गया वह दर्पण निर्मम
toot gaya wo darpan nirmam
टूट गया वह दर्पण निर्मम
उसमें हँस दी मेरी छाया!
मुझमें रो दी ममता माया,
अश्रु-हास ने विश्व सजाया,
रहे खेलते आँखमिचौनी
प्रिय! जिसके परदे में 'मैं' 'तुम'!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
अपने दो आकार बनाने;
दोनों का अभिसार दिखाने;
भूलों का संसार बसाने,
जो झिलमिल-झिलमिल-सा तुमने
हँस-हँस दे डाला था निरुपम!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
कैसा पतझर कैसा सावन,
कैसी मिलन-विरह की उलझन,
कैसा पल-घड़ियोंमय जीवन,
कैसे निशि-दिन कैसे सुख-दुख
आज विश्व में तुम हो या तम!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
किसमें देख सँवारूँ कुंतल,
अंगराग पुलकों का मल मल,
स्वप्नों से आँजूँ पलकें चल,
किस पर रीझूँ किससे रूठूँ,
भर लूँ किस छवि से अंतरतम!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
आज कहाँ मेरा अपनापन;
तेरे छिपने का अवगुंठन;
मेरा बंधन तेरा साधन,
तुम मुझमें अपना सुख देखो
मैं तुममें अपना दुख प्रियतम!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
- पुस्तक : संधिनी (पृष्ठ 72)
- रचनाकार : महादेवी वर्मा
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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