जीवन बुझ रहा,
दया दिखलाओ।
बस थोड़ी-सी है कसर,
शीघ्र आ जाओ।
आओ, आओ अब तो न
विलंब लगाओ।
जिसमें जीवित ही हमें
यहाँ तुम आयो।
जो होना था वह हुआ
न कुछ पछताओ।
बीती बातों के लिए
न सब शरमाओ।
संकोच छोड़ दो व्यथा
न मन में लाओ
बस निज प्रसन्न मुख-छटा
हमें दिखलाओ।
बन कर विनीत तुम हमें
मनाने आओ।
मन का चिरकालिक ताप
मिटाने आओ।
आँखों की गहरी प्यास
बुझाने आओ।
अब तो दुःखों से पिंड
छुड़ाने आओ।
अपनी वह मीठी तान
सुनाने आओ।
निज रूप-राशि फिर हमें
दिखाने आओ।
यह मुरझा हृदय-सरोज
खिलाने आओ।
निज प्रेम-पुंज-पीयूष
पिलाने आओ।
लो, एक बार फिर हमें
गले लिपटाओ।
विश्लेष-क्लेश सविशेष
अशेष मिटाओ।
आकर अपना यह गेह
पवित्र बनाओ।
बस प्रीति-सहित अब हमें
विदा कर जाओ।
आकर बस यह वरदान
हमें दे जाओ।
“जग में जब हो फिर जन्म
हमें तुम पाओ।”
अब यह अंतिम प्रार्थना
चित्त में लाओ।
मरना तो सुखमय हमें
सहर्ष बनाओ।
- पुस्तक : संचिता (पृष्ठ 44)
- रचनाकार : गोपालशरण सिंह
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1939
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