हो न सके खुलकर अपनों से
ho na sake khulkar apnon se
हो न सके खुलकर अपनों से,
वो भी कब किसके हो पाए?
बीच धार में खड़े हुए हम,
विकट ज़िंदगी का ये मंजर,
पार उतरना, किंतु डर रहे,
ढीले-ढाले अंजर-पंजर।
ख़ौफ़नाक हमले सपनों के,
नींद न हम अपनी सो पाए।
हो न सके हम पूत ठीक से,
पिता न हो पाए क़रीब से।
रिश्ते भी क्या रिश्ते होते,
महँगाई में इस ग़रीब के?
मोल नहीं जाने वचनों के
अपने बोझ न हम ढो पाए।
इनसे भी क्या गिला करें हम,
उनकी भी अपनी मजबूरी।
मिली कहाँ अब तक इन उनकी,
मेहनत की वाज़िब मज़दूरी?
सोच-समझकर सौ जतनों से
दाग़ न हम अपने धो पाए।
- पुस्तक : लिख सकूँ तो— (पृष्ठ 13)
- रचनाकार : नईम
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2003
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