एक रोज़ अली निकली इकली
ek roz ali nikli ikli
एक रोज़ अली निकली इकली,
कली नंद को नंदन आय गयो।
नट नागर नटवर नटखट नट,
वंशीवट तट भटकाय गयो॥
छलछंद भरो ब्रजचंद मुकुंद,
अनंद से वेणु बजाय गयो।
सुर-ताल से गाय निहाल कियो,
किरपाल जमाल दिखाय गयो॥
बेचैन कियो कह बैन मधुर,
फिर नैन की सैन चलाय गयो।
मुसकाय रिझाय लुभाय गयो,
डरपाय मनाय हँसाय गयो॥
हँसकर बसकर कसमस कीन्ही,
रस-भीनी सुबात सुनाय गयो।
नट नागर नटवर नटखट नट,
वंशीवट तट भटकाय गयो॥
भृकुटी कर बंक गही लकुटी,
दधि की मटुकी ढरकाय गयो।
बतियाँ घतियाँ कर छुई छतियाँ,
बैयां चुरियाँ मुरकाय गयो॥
घूँघट को उलट झपट नटखट,
घुड़की झुड़की बतलाय गयो।
झट झंझट कर दई एक डपट,
ऐसो ये निपट इतराय गयो॥
नंदलाल गुपाल ने चाल करी,
तत्काल कुचाल मचाय गयो।
नट नागर नट वर नटखट नट,
वंशीवट तट भटकाय गयो॥
रगड़ा झगड़ा कर के निगुड़ा,
घड़ा मेरो दही को गिराय गयो।
बुलवाय सखान दिखाय लुटाय,
बचाय के बारि बहाय गयो॥
करी रार बड़ी जड़ी एक छड़ी,
फिर कर के खड़ी नचवाय गयो।
अलसात प्रभात सुहात भलो,
झट गात से गात मिलाय गयो॥
चुलबुल में भरो चंचल अचपल
छलबल कर चित्त चुराय गयो।
नट नागर नटवर नटखट नट,
वंशीवट तट भटकाय गयो॥
होकर के निडर नटवर लंगर,
अंबर जल मांहि डुबाय गयो।
बिहंसाय गयो, बतराय गयो,
धमकाय गयो, बौराय गयो॥
अँगिया मसकाय हटाय दई,
गरवा हरवा कड़काय गयो।
करी रार, लवार, हज़ार कही,
शृंगार बिगार, बिलाय गयो॥
बरज़ोरी मैं दौरी बिहारी के संग,
मोहिं पौरी पै बौरी बनाय गयो।
नट नागर नटवर नटखट नट,
वंशीवट तट भटकाय गयो॥
दर्शन कर मग्न भई मैं तो,
तन-मन कर होश भुलाय गयो।
उत वो चितचोर मरोर भगो,
इत उत चितवत ही छुपाय गयो॥
फिरी डोलत ढूँढ़त मैं चहुँदिश,
ब्रजपति कित जानै लुकाय गयो।
वृंदावन, मधुवन गोवर्धन,
सब घाटन मोहिं घुमाय गयो॥
मनमोहन ‘राधेश्याम’ सज्जन,
अँखियन में मोरी समाय गयो।
नट नागर नटवर नटखट नट,
वंशीवट तट भटकाय गयो॥
- पुस्तक : राधेश्याम-विलास (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : राधेश्याम कथावाचक
- प्रकाशन : राधेश्याम पुस्तकालय, बरेली
- संस्करण : 1925
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