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बंद करो मधु की

band karo madhu ki

गोपालदास नीरज

गोपालदास नीरज

बंद करो मधु की

गोपालदास नीरज

और अधिकगोपालदास नीरज

    बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आँगन में,

    बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुंठन में,

    अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,

    बहुत दिनों तक बँधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,

    आज किंतु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है

    कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।

    बंद करो मधु की रस-बतियाँ, जाग उठा अब विष जीवन का॥

    मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,

    जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,

    किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अंतर में,

    प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना ख़ुद का निर्माता,

    जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,

    वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।

    बंद करो मधु की रस-बतियाँ, जाग उठा अब विष जीवन का॥

    जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,

    आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,

    करता हूँ इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,

    अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,

    और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है

    कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।

    बंद करो मधु की रस-बतियाँ, जाग उठा अब विष जीवन का॥

    आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,

    नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,

    सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो

    धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,

    जो सुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में

    फिर लूँ क्यों एहसान व्यर्थ मैं साक़ी की चंचल चितवन का।

    बंद करो मधु की रस-बतियाँ, जाग उठा अब विष जीवन का॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : गीत जो गाए नहींं (पृष्ठ 48)
    • रचनाकार : गोपालदास नीरज
    • प्रकाशन : डायमंड पॉकेट बुक्स
    • संस्करण : 2019

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