अपनों से जो नहीं छला है
apnon se jo nahin chhala hai
हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’
Harihar Prasad Choudhary ‘Nutan’
अपनों से जो नहीं छला है
apnon se jo nahin chhala hai
Harihar Prasad Choudhary ‘Nutan’
हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’
और अधिकहरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’
वह भी इंसान क्या भला है
अपनों से जो नहीं छला है?
छला हुआ मन गहरा-गहरा
बाक़ी सब उथला-उथला है!
सागर की छाती पर, काँपते तरंगों में
चम्मच भर आँसू के घोल नहीं बहते
पीड़ाओं का पराग
उड़ता बन सिर्फ़ आग
यह बिल्कुल तय है, हम पत्थर ही रहते!
आँसू जब शिल्प में ढला है—
पत्थर की मूर्ति भी कला है!
नभ के उच्छ्वासों से गल-गल कर जमा हुई
तर्कों के पर्वत पर भावों की गोमुखी
सूरज के घातों से
लुढ़कती ढलानों पर
उतरी स्रोतस्विनियाँ गाती अंतर्मुखी
मंथन जब मौन का चला है
होंठों पर गीत तब फला है!
दूध-जले जग का यह बौना-सा संवेदन
मूल्य पा रहा बनकर चिंतन तन-मन का
ओ मेरे शाश्वत!
तू ही अपना निर्णय दे—
मीत बनूँ तन का या गीत बनूँ मन का!
तन का विश्वास खोखला है
मन आख़िरकार मनचला है!
- रचनाकार : हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए सतीश नूतन द्वारा चयनित
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