कमनीय अनारकली जो
थी राजमहल की दासी—
वह बनी कुमार-हृदय की
स्वामिनी प्रेम की प्यासी।
दिव में दिवांगनाएँ भी
थीं उसे देख कर लज्जित;
छबि के प्रकाश में उसने
नृप-सदन किया आलोकित।
सुकुमार-कुमार-हृदय की
स्वर्गीय प्रेम की प्रतिमा;
ली छीन अनारकली ने
नव-कुसुम-कली की सुषमा।
अपने इस भाग्योदय पर
वह फूली नहीं समाई;
पर निठुर नियति ने आकर
काँटों की सेज बिछाई।
प्रिय से मिलने को सरिता
थी बहती उछल-उछल कर;
पर मिल न सकी सागर से
था खड़ा बीच में भूधर।
कामना-कुसुम तो फूले
पर कभी बहार न आई;
प्रिय-प्रेम-वारि-सिंचित भी
वह हेम-लता मुरझाई।
बंदी बन गई अभागी
रह सकी न सुख के घर में;
स्वप्नों का स्वर्ण-निकेतन
हो गया नष्ट पल भर में।
युवती की यौवन-सरिता
मिल गई दुःख-सागर में;
जीवन की मधुर उमंगें
हो गई बंद गागर में।
दुर्लभ आकाश-सुमन-सा
था उसे मिलन प्रियतम का;
पर किया प्रेम से पालन
जीवन के प्रेम-नियम का।
पल-पल प्रियतम की झाँकी
देखा करती थी मन में;
बस एक यही सुख पाया
उसने बंदी जीवन में।
थे छिपे प्रेम-दुख दोनों
उसके भींगे आँचल में;
रहती थी सदा निमज्जित
वह निज अथाह दृग-जल में।
छिप गए मनोरथ-तारे
उर-नभ के दुख-बादल में।
केवल कुमार-स्मृति-चपला
अंकित थी अंतस्तल में।
दुख-दलित प्राण अबला के
थे नहीं निकल भी जाते;
बस प्रेम-पयोनिधि में थे
डूबते और उतराते।
कारागृह से तो छूटी
पर गई अकेली वन में;
ले गई साथ स्मृति कोमल
केवल कुमार की मन में।
प्रासाद-वासिनी भावी
भारत-भूपति की प्यारी;
दुखिया अनार गिरि-वन में
घूमी विपत्ति की मारी।
थी जहाँ-जहाँ वह जाती
रँगती थी भूमि विपिन में;
पैरों के छाले आँसू
थे बहा रहे दुर्दिन में।
लतिकाओं से वह लिपटी
फूलों को व्यथा सुनाई;
पर कहीं अनारकली ने
थोड़ी भी शांति न पाई।
सरिता के शीतल जल में
दिन भर रह गई समाई;
पर शीतलता न तनिक भी
उसके जीवन में आई।
सपने में भी प्रिय-दर्शन
वह कभी नहीं थी पाती;
करने पर भी चेष्टाएँ
उसको थी नींद न आती।
खाना-पीना सब छोड़ा
ईश्वर में ध्यान लगाया;
तो भी सलीम तरुणी से
जा सका न हाय, भुलाया।
दे सकी न जिसको जीवन
वह बनी न उसकी दासी;
पर हँसी-ख़ुशी से तरुणी
चढ़ गई प्रेम की फाँसी।
पी गई गरल का प्याला
प्रिय-अधर-सुधा की प्यासी;
छिप गई शीघ्र संध्या की
वह करुण-अरुण आभा-सी।
- पुस्तक : मानवी (पृष्ठ 100)
- रचनाकार : गोपालशरण सिंह
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1938
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