जग-उर-कमल-विकास
है अनंत उल्लास।
विकसित हैं वर विपिन-स्थलियाँ,
खेल रही हैं रुचिर तितलियाँ,
हैं खिल रहीं कुंज की कलियाँ,
घेर रही हैं भ्रमरावलियाँ।
पवन प्रेम-प्रकाश
है अनंत उल्लास।
उज्ज्वल-लोहित नीले-पीले,
रुचिर रंग से रँगे रँगीले,
ओस-कणों से गीले-गीले,
मृदु सुगंधि से सने रसीले।
कल-कुसुमों का हास
है अनंत उल्लास।
चमक-चमक चंचला गगन में,
ज्योति जगा देती है घन में,
ला समीर मृदु सौरभ वन में,
भर देती है सुमन-सुमन में।
जग का पुण्य प्रयास
है अनंत उल्लास।
विटप विटप से सुमन सुमन से,
लता लता से पवन पवन से,
वन से वन, उपवन उपवन से,
कोकिल कूक-कूक जन-जन से—
कहते हैं मधुमास
है अनंत उल्लास।
मत्त मयूरी है इठलाती,
भ्रमरी रहती है मँडराती,
मृगी चौंकती है मदमाती,
है विहंगिनी उड़-उड़ जाती।
प्रिय-प्रेम-परिहास
है अनंत उल्लास।
देख रहे हैं सब पादपगण,
खींच रहा है वसन समीरण,
लतिकाएँ हो क्रोधित क्षणक्षण,
फेंक रही हैं सुमन-विभूषण।
लज्जा का उल्लास
है अनंत उल्लास।
कभी थिरकती कभी लजाती,
उठ-उठ गिर-गिर भाव बताती,
रत्नावलि-सी है बन जाती,
लघु लहरे हैं चित्त चुराती।
वारिधि-वीचि-विलास
है अनंत उल्लास।
गगनस्थली खोल दृग-तारे,
वनस्थली अनुपम छवि धारे,
निज आँचल मेदिनी पसारे,
मंजु मोरनी पक्ष उभारे—
देती हैं आभास,
है अनंत उल्लास।
नभ में अगणित दीप जलाये,
क्षिति में सुंदर साज सजाये,
वन में पल्लव फूल बिछाये,
प्रकृति-प्रिया है ध्यान लगाए—
पुरुष-मिलन-अभिलाष,
है अनंत उल्लास।
- पुस्तक : कादम्बिनी (पृष्ठ 103)
- रचनाकार : गोपालशरण सिंह
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1937
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