तुम भी औरों जैसे निकल
तुमने भी सब वही किया
संयम, व्रत की कामधेनु का
कितना गाढ़ा दूध पिया!
संशोधित संस्करण निकाला किए
अतृप्त पिपासा के
आत्मदान की उत्कंठा के
लाजों मरती भाषा के
गोपन की, विलुप्ति की स्वरलिपि
ही तो जीवन भर जानी
मृगतृष्णा की संवादी लय
ही तो देवगिरा मानी
और सबों से अलग न अपनी
कोई भी पहचान रची
औरों जैसी रही तुम्हारी भी
कुंठा की धूम मची
अनाहार, अवसाद, अनिद्रा
का उपवासी जन्म जिया
तुम भी औरों जैसे निकल
तुमने भी सब वही किया!
शिला-उत्खनित स्मृतियों जैसे
भाव अकारथ मँडराए
तुम भी जीवन की वैतरणी तट
के पथिक रहे आए
पेट काटती रही तुम्हारी
सती-साध्वी अभिलाषा
औरों-सा ही जीव तुम्हारा
बेचेहरा, भूखा-प्यासा
एक उसी, बस एक उसी
मिलनातुरता की रटन रही
औरों जैसी तुमने भी
इतनी अवगंठित आयु सही
जलते दिवस, बुझी रातों में
नहीं किसी का नाम लिया
तुम भी औरों जैसे निकल
तुमने भी सब वही किया
अमिट अंक जैसे विधना के
अपठित रहे अबूझे तुम
औरों जैसे नहीं मनासिजा
को अपनी भी सूझे तुम
रुद्ध नियति की भूल बड़ी
जो तुम परदेशी भरमाए
संसृति के इस सभा-कक्ष में
औरों जैसे ही आए
जो न मिला उसकी आहट में
प्राणों का संगीत सुना
जीवन के इस पार न जो
मिल पाए ऐसा मीत चुना
स्वप्न तराशा किए सत्य ने
जिन्हें न जीवित अर्थ दिया
तुम भी औरों जैसे निकल
तुमने भी सब वही किया!
- पुस्तक : साक्षात्कार 128-130 (पृष्ठ 5)
- संपादक : मनोहर वर्मा
- रचनाकार : रामेश्वर शुक्ल अंचल
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