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मुर्ग़ा और मानुस

murgha aur manus

एक राजा था। उसकी कई रानियाँ थीं। राजा का एक ऐसा बेटा था जो दिन में मुर्ग़ा बनकर रहता था और रात होते ही मनुष्य बन जाता था। एक दिन की बात है। मुर्ग़ा दाना चुगने के लिए बाहर निकला। दाना चुगते-चुगते उसे सोने की एक गिल्ली मिली। उसने उसे घर लाकर रख दिया।

दूसरे दिन मुर्ग़ा फिर दाना चुगने के लिए बाहर निकला। उसे एक और सोने की गिल्ली मिली। जब गिल्ली लेकर इधर-उधर घूम ही रहा था कि एक आदमी मिला। मुर्ग़े ने उस आदमी से कहा कि मेरी सोने की गिल्ली ले लो और मेरे कानों में चावल भर दो। वह आदमी पड़ोसी देश का राजा था। उसकी बेटी ने जब सोने की गिल्ली देखी तो बड़ी ख़ुश हुई और अपनी माँ से बोली, “भर दो माई मुर्ग़ा के कान में चावल।”

जब मुर्ग़े का कान चावल से भरा जाने लगा तब उस राजा की चावल से भरी सारी कोठियाँ ख़ाली हो गईं, फिर भी उसका कान नहीं भरा। मुर्ग़े ने कहा कि एक मुट्ठी चावल लेकर भर दो मेरे कान। ऐसे करते ही उसका कान भर गया। वहाँ से मुर्ग़ा सधे क़दमों से अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में उसे एक बकरी का चरवाहा मिला। उस चरवाहे से मुर्ग़े ने कहा, “जाओ और जाकर मेरी माँ से कह दो कि कोठी-भाँड़ी ख़ाली करके रखे।” माँ ने कहा, “मुर्ग़ा होकर भी इतना अन्न-धन कहाँ से लाएगा?” इतने में मुर्ग़ा गाते-गुनगुनाते घर के आँगन में गया, “मइया, कोठियाँ अजवारिहें। मइया, घरवा अजवारिहें।”

मुर्ग़े ने अपना कान झकझोरा तो घर-आँगन चावल से भर गया। यह देख और जानकर अगल-बग़ल वाले पड़ोसी अपने बेटे-बेटियों पर बहुत खिसियाए कि वह मुर्ग़ा होकर भी इतना सारा अन्न-धन अपने घर ला रहा है और तुम सब आवारा, नालायक़ हो। कुछ नहीं करते हो।

दूसरे दिन मुर्ग़ा पहले दिन मिली सोने की गिल्ली लेकर दूसरी दिशा में निकला। चलते-चलते दूसरे राज्य में पहुँच गया। वहाँ राजा की बेटी तक किसी तरह यह बात पहुँच गई कि एक मुर्ग़ा चावल के बदले सोने की गिल्ली दे रहा है। मुर्ग़े को बुलाया गया। सोने की गिल्ली के बदले उसके कान में चावल-दाल भरना शुरू हो गया। उसके घर का सारा दाल-चावल मुर्ग़े के कान में भर गया। फिर भी थोड़ा ख़ाली रह गया। फिर मुर्गे ने कहा कि केवल मुट्ठी भर चावल लो और भर दो मेरे कान में। वैसा ही किया राजा की बेटी ने। मुर्ग़े ने सोने की गिल्ली उसे सौंपी और अपने घर की ओर चल दिया।

रास्ते में मुर्ग़े को गाय का एक चरवाहा मिला। उससे भी उसने कहा कि जाकर मेरी माँ को ख़बर कर दो कि कोठी-भाँड़ी ख़ाली करके रखेगी। मुर्ग़ा गुनगुनाते हुए रहा था, “मइया, कोठियाँ अजवारिहें। मइया, भाँड़िया अजवारिहें!” ऐसे ही गाते-गुनगुनाते मुर्ग़ा अपने घर-आँगन में पहुँच गया। उसकी माँ भी उसका इंतज़ार कर रही थी। मुर्ग़े ने जैसे ही अपना कान झकझोरा, कोठी-भाँड़ी, घर-आँगन सब भर गया। ऐसा देख और जान कर पड़ोसियों को डाह होने लगी। उन्होंने अपने बच्चों की नालायक़ी पर खिसियाकर उन्हें मारना-पीटना शुरू कर दिया।

अगले दिन मुर्ग़ा फिर किसी अन्य दिशा में चल दिया। रास्ते में एक बिच्छु मिला। उसने पूछा, “मुर्ग़ा भाई, कहाँ जा रहे हो बन-ठन कर?”

“ससुरारी जाइत ही, चलब का?” मुर्ग़े ने जवाब दिया!

“लिया चल सक चलबव काहे”, बिच्छु बोला।

मुर्ग़े ने बिच्छु को कान में बैठा लिया। आगे बढ़ने पर एक साँप मिला। उसे भी मुर्ग़े ने कान में बैठा लिया। जाते-जाते मुर्ग़ा जंगल में पहुँच गया। उसे एक लाठी मिली, उसे भी अपने कान में रख लिया। कुछ ही दूर आगे बढ़ा था कि उसे बाघ आता दिखाई दिया। थोड़ी बातचीत हुई तो बाघ भी चलने को तैयार हो गया। मुर्ग़े ने उसे भी कान में बैठाया और चल दिया। इसी तरह से उसे रास्ते में अग्नि मिली, उसे भी अपने साथ ले लिया। सबके साथ चलते-चलते मुर्ग़ा राजा के क़िले के अंदर प्रवेश कर एक टीले पर बैठ गया। उसने बोला, “मुझे राजा की बेटी से शादी करनी है।” यह ख़बर राजकुमारी तक पहुँची तो वह खिसियाते हुए बोली, “तू मुर्ग़ा होकर मुझसे विवाह करेगा, तुम्हारी इतनी हिम्मत?”

राजकुमारी की झिड़की सुनकर मुर्ग़े को भी ग़ुस्सा गया। उसने अपने साथ आए सारे मेहमानों को खुल्ला छोड़ दिया। छूट मिलते ही बिच्छु लोगों को बिंधने लगा, बाघ लोगों को खाने लगा, साँप डसने लगा और आग सबको जलाने लगी। जब एक बूढ़ी औरत बच गई तो उसने मुर्गे से विनती की, “सबको ज़िंदा कर दो तभी राजा की बेटी से तुम्हारा विवाह हो पाएगा।” मुर्ग़े को उनकी दयनीय हालत पर तरस गई और भरोसा भी हो गया था। उसने वैसा ही किया और सब यथावत हो गया। मुर्ग़े की शादी राजा की बेटी से हो गई। अपनी रानी को विदा कराकर घर की ओर चल दिया।

रास्ते में अपने साथियों-मेहमानों को उसने अपनी-अपनी जगह छोड़ दिया। घर पहुँचने ही वाला था कि उसे एक भैंस का चरवाहा मिला। उसने उससे कहा, “जाकर मेरी माँ को ख़बर कर दो कि नउवा-ब्राह्मण को बुलाकर चौका तैयार रखेगी।”

चरवाहे ने उसकी माँ को ख़बर कर दी। उसकी माँ यह ख़बर सुनकर काफ़ी ख़ुश हुई, “वाह रे मुर्ग़ा बेटा! मुर्ग़ा होके भी राजा की बेटी से बिआह कयलक।” इसी बीच मुर्ग़ा गाते-गुनगुनाते अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच गया।

“मइया, चउकवा पुरइहें, मइया पंडी जी बोलइहें,

मइया नउवा बोलइहें।”

सबको बुलाया गया। “चट मड़वा पट भतवान” मुर्ग़े की राजा की बेटी से शादी हो गई। दिन में तो वह मुर्ग़ा बना रहता, रात होते ही वह मानुस बन जाता।

एक दिन रानी ने रात में मुर्ग़े का पंख खोजकर उसको जला दिया। राजा मुर्ग़ा के बहुत खोजने पर भी उसे पंख नहीं मिला। अब वह मानुस बनकर, आदमी बनकर ही रहने लगा। इसके बाद से राजा-रानी दोनों ख़ुशी-ख़ुशी अपना जीवन बिताने लगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 40)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत
  • संस्करण : 2019

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