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शंकालु पति

shankalu pati

एक बूढ़ा था। उसका एक पुत्र था। बूढ़े ने बहुत ढूँढ़-ख़ोजकर अपने बेटे के लिए एक बुद्धिमती कन्या तलाश की और उसके साथ अपने बेटे का विवाह करा दिया।

पुत्र की पत्नी पशु-पक्षियों की बोली समझती थी। रात हुई तो घर के आस-पास सियार मँडराने लगे। उनमें से एक सियार ने सियारिन से कहा कि कल हमने जिस मनुष्य की लाश पाई थी उसकी जाँघ में सोने की गिन्नियाँ थीं। बहू ने सुना तो उसने विचार किया कि यदि मैं वो सोने की गिन्नयाँ ले आऊँ तो मेरा पति बहुत प्रसन्न होगा। बहू ने चुपचाप द्वार खोला और घर से निकलकर उस स्थान पर पहुँची जहाँ सियारों ने लाश छोड़ी थी। बहू ने लाश के पाँव से गिन्नियाँ निकाली और घर लौट आई। जैसे ही उसने घर में प्रवेश किया वैसे ही उसका पति सामने गया।

‘तू कहाँ गई थी? और तेरे हाथ में ये क्या है?’ पति ने पूछा।

बहू ने सब कुछ साफ़-साफ़ बता दिया। पति को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ।

‘ऐसा भी कहीं होता है कि कोई मनुष्य पशु-पक्षियों की बोली समझे? तू मुझे मूर्ख बना रही है। तू बदचलन है। मैं तुझे अपनी पत्नी के रूप में नहीं रख सकता हूँ। अच्छा होगा कि तू अपने मायके चली जा।’ पति नाराज़ होता हुआ बोला।

बहू ने रो-रोकर ससुर से कहा कि वे अपने बेटे को समझाएँ। ससुर जानता था कि उसकी बहू में पशु-पक्षियों की बोली समझने का गुण है अतः उसने बहू का पक्ष लेकर अपने बेटे को समझाने का प्रयास किया। बेटे को नहीं मानना था, वह नहीं माना। तब बहू ने ससुर से कहा कि वे उसे उसके मायके छोड़ आएँ। ससुर को ऐसी गुणवती बहू को घर से निकालते हुए दुख तो हो रहा था किंतु वह भला क्या करता जब उसका बेटा ही राज़ी नहीं था।

ससुर बहू को साथ लेकर चल पड़ा। बहू का मायका दूर था। रास्ते में एक घाटी पड़ती थी। घाटी में जब वे नदी के पास पहुँचे तो ससुर ने कहा कि अब तनिक विश्राम कर लें फिर आगे चलते हैं। यह कहकर ससुर वहीं एक पेड़ के नीचे सो गया।

पेड़ पर एक कौआ बैठा था। कौवे ने बहू से कहा कि इस नदी के तल में सोने से भरे दो कलश रखे हैं जिन पर एक-एक सर्प लिपटे हुए हैं। यदि तुम उन सर्पों को बाहर निकाल दो तो मैं उन्हें खा सकूँगा फिर तुम चाहो तो वे दोनों कलश ले लेना।

बहू ने कौवे की बात मानने से मना कर दिया। उसी समय ससुर की नींद खुल गई। उसने पूछा कि तुम कौवे से क्या बात कर रही थीं। पहले तो बहू ने टालने का प्रयास किया किंतु अधिक ज़ोर देने पर बता दिया।

‘यदि तुम सोने के कलश निकाल लो तो हम वापस घर लौट सकते हैं। सोने के कलश देखकर मेरे बेटे को विश्वास हो जाएगा कि तुम झूठ नहीं बोल रही थीं क्यों कि अब मैं भी तुम्हारे साथ था।’ ससुर ने कहा।

‘नहीं ससुर जी, एक बार मुट्ठी भर गिन्निायाँ लाने पर तो पति ने त्याग दिया और अब कलश भर सोना ले जाने पर जाने क्या होगा? नहीं, मैं कलश नहीं निकालूँगी।’ बहू ने कहा।

‘क्या तुझे मुझ पर विश्वास नहीं है? मैं हूँ तेरे साथ।’ ससुर ने समझाया।

अंततः बहू नदी से कलश निकालने को तैयार हो गई। वह एक लंबी लकड़ी लेकर नदी में उतरी और उस लकड़ी से उसने पहले एक साँप को नदी से बाहर उछाला फिर दूसरे साँप को उछाल दिया। कौवे ने दोनों साँपों को अपनी चोंच में दबाया और बहू को धन्यवाद देता हुआ उड़ गया।

अब बहू ने पहले एक कलश निकालकर ससुर को पकड़ाया फिर दूसरा कलश निकालकर थमा दिया और स्वयं नदी से बाहर गई। बहू ने एक कलश अपने सिर पर रखा और ससुर ने दूसरा कलश अपने कंधे पर रखा और दोनों वापस घर की ओर चल पड़े।

कलश के भार से ससुर थक गया। उसने बहू से कहा, ‘इस समय बेटा काम पर गया होगा इसलिए डरने की कोई बात नहीं है। तुम घर चलो और मैं तनिक सुस्ताकर आता हूँ। बेटे के आने से पहले मैं भी जाऊँगा और पहले मैं बेटे से बात करूँगा। वह अवश्य मान जाएगा।’

बहू का अकेले घर में प्रवेश करने का मन तो नहीं हो रहा था लेकिन ससुर की आज्ञा का पालन करती हुई। घर जा पहुँची। दुर्योग से उसका पति उस दिन काम पर नहीं गया था वह घर पर ही था। उसने अपनी पत्नी को सोने से भरा कलश लेकर अकेले वापस आया हुआ देखा तो उसका संदेह बढ़ गया।

‘तो अब तूने मेरे पिता को भी मार दिया और कहीं से बदचलनी करके सोने से भरा कलश ले आई। अब मैं तुझे नहीं छोड़ूँगा।’ कहते हुए पति ने झपटकर खुखरी उठाई और अपनी पत्नी को मार डाला।

उसी समय ससुर गया। वह भी सोने से भरा कलश लिए हुए था। यह देखकर पति चकित रह गया। ससुर ने बहू को मरा हुआ देखा तो बेटे को कोसने लगा, ‘अरे हतभागे, ये तूने क्या किया? लक्ष्मी-सी गुणवती बहू को मार डाला।’

फिर ससुर ने अपने बेटे को नदी से कलश निकालने की पूरी घटना सुनाई। जिसे सुनकर बेटे को विश्वास करना पड़ा क्यों कि यह सब उसके पिता ने अपनी आँखों से देखा था और प्रमाणस्वरूप सोने से भरे वे दोनों कलश थे। बेटे ने सच्चाई जानकर अपना सिर पीट लिया। उससे बहुत बड़ा अनर्थ हो गया था। लेकिन अब पछताने से क्या होता? उसकी शंकालु प्रवृति ने उससे उसकी सुशील और गुणवती पत्नी छीन ली थी।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 296)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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