एक गाँव में गोपालन नाम का एक आदमी रहता था। वह अत्यंत ग़रीब था। इतना ग़रीब कि कभी-कभी उसके पास खाने को चावल का एक दाना भी नहीं रहता था। उसकी पत्नी और उसके बच्चों को भूखा रहना पड़ता था।
एक दिन गोपालन की पत्नी ने उससे कहा कि उसे दूसरे गाँव में जाकर पैसे कमाने का प्रयास करना चाहिए। गोपालन पत्नी की बात मान गया। गोपालन की पत्नी ने रास्ते में खाने के लिए उड़द की दाल की दो रोटियाँ बाँध दीं। गोपलन चल पड़ा। चलते-चलते जब वह थक गया तो सुस्ताने के लिए एक पेड़ के नीचे लेट गया। थोड़ी देर में उसे नींद आ गई। उसी समय कुछ देवकन्याएँ उधर आ निकलीं। उन्हें उड़द की रोटी की सुगंध आई तो वे गोपालन के निकट पहुँचीं। उन्होंने गोपालन की पोटली खोली और दोनों रोटियाँ खा लीं।
जब गोपालन सोकर उठा तो उसे भूख लगी। उसने पोटली देखी तो उसमें रोटी नहीं थी। वह दुख के कारण रोने लगा। उसका रुदन सुनकर देवकन्याएँ उसके पास आईं और उससे रोने का कारण पूछा।
‘मैं बहुत ग़रीब आदमी हूँ। मैं पैसा कमाने दूसरे गाँव जा रहा हूँ। रास्ते में खाने के लिए मेरी पत्नी ने भीख माँगकर उड़द की दो रोटियाँ बनाकर दी थी लेकिन उन्हें भी कोई खा गया।’ गोपलन ने कहा।
‘दुखी मत हो। वह रोटियाँ हमने खाई हैं। अब हम बदले में तुम्हें एक अक्षयपात्र देती हैं जिससे जो भी खाने का माँगोगे और पात्र को केले के पत्ते पर उलटोगे तो माँगी गई खाद्य वस्तु सामने आ जाएगी।’ यह कहते हुए देवकन्याओं ने एक अक्षयपात्र गोपालन को दे दिया।
गोपालन ने सबसे पहले दो रोटियाँ माँगी। अक्षयपात्र पलटते ही दो रोटियाँ उसे मिल गई। उसने प्रसन्नतापूर्वक दोनों रोटियाँ खाई और अपने घर लौट गया।
घर पहुँचकर उसने अक्षयपात्र अपनी पत्नी को दिया। पत्नी ने अपने और अपने परिवार के लिए अच्छी-अच्छी वस्तुएँ खाने को माँगी और अक्षयपात्र को जैसे ही केले के पत्ते पर पलटा वैसे ही वे सारी वस्तुएँ पत्ते पर आ गई। सभी ने रुचिपूर्वक भोजन किया। इसके बाद उन लोगों के भाग्य में परिवर्तन आ गया। उनके घर से ग़रीबी दूर हो गई। ग़रीबी दूर होने की ख़ुशी में गोपलन ने पूरे गाँव को न्योता दिया। गोपालन गाँव वालों के सामने केले के पत्तों पर अक्षयपात्र पलटता जाता और उन्हें उनकी इच्छानुसार खाद्यसामग्री देता जाता। इससे गाँव वाले गोपालन की प्रशंसा करने लगे।
गोपालन की संपन्नता देखकर उसका पड़ोसी ईरण्णा ईर्ष्या करने लगा। वह सोचने लगा कि उसे भी वैसा ही अक्षयपात्र मिल जाए तो वह और अधिक संपन्न हो जाए। उसने एक दिन गोपलन से पूछ लिया कि उसे अक्षयपात्र कैसे मिला? सीधे-साधे गोपालन ने सब कुछ सच-सच बता दिया। गोपालन से सच्चाई जानने के बाद ईरण्णा ने अपनी पत्नी से उड़द की दो रोटियाँ बनवाई और जंगल की ओर चल पड़ा। जंगल में पहुँचकर उसने रोटियों की पोटली अपने बगल में रखी और एक पेड़ के नीचे लेट गया।
थोड़ी देर में देवकन्याएँ उधर आईं। उन्हें रोटियों की सुगंध मिली। लेकिन ईरण्णा की पत्नी ने उड़द की रोटियों में काजू, किशमिश आदि मेवे भी डाल दिए थे जिससे देवकन्याएँ अधिक प्रसन्न हो जाएँ और गोपालन के अक्षयपात्र से बड़ा अक्षयपात्र ईरण्णा को दे दें। देवकन्याएँ तो मेवे-मिष्ठान्न खाने वाली थीं नही अत: उन्हें मेवे डली रोटियों में रुचि नहीं आई। इधर सोने का नाटक करके चुपचाप लेटे हुए ईरण्णा ने देखा कि देवकन्याएँ रोटियाँ नहीं खा रही हैं तो वह उठ बैठा और उसने देवकन्याओं से रोटियाँ खा लेने का आग्रह किया। ईरण्णा के आग्रह पर देवकन्याओं ने रोटियाँ खा लीं और वे जाने को हुई तो ईरण्णा रो-रो कर कहने लगा कि तुम लोगों ने मेरी रोटियाँ खा ली हैं अतः अब मुझे तुम एक अक्षयपात्र दो।
‘हमने तुम्हारे आग्रह पर रोटियाँ खाईं हैं।’ देवकन्याओं ने कहा।
‘इससे क्या होता है? अब तो तुम या तो मेरी रोटियाँ लौटाओ या फिर अक्षयपात्र दो।’ ईरण्णा हठ करने लगा।
देवकन्याएँ समझ गई कि ईरण्णा लालची है और लालच के वशीभूत उसने रोटी खिलाई थी ताकि बदले में अक्षयपात्र माँग सके। देवकन्याओं ने ईरण्णा को सबक सिखाने को एक अक्षयपात्र दे दिया जो गोपालन के अक्षयपात्र से बड़ा था। ईरण्णा बड़ा अक्षयपात्र पाकर बहुत ख़ुश हुआ। उसने उस अक्षयपात्र से तत्काल लड्डू-पेड़े माँगे और उसे केले के पत्ते पर पलटा। अक्षयपात्र पलटते ही उसमें से दो नाई निकले। उनमें से एक ने ईरण्णा का सिर पकड़कर झुकाया और दूसरे ने उसका सिर मूँड़ दिया। ईरण्णा घबरा गया। फिर भी लालची ईरण्णा ने अक्षयपात्र को फेंका नहीं अपितु यह सोचकर अपने साथ अपने घर ले गया कि संभवत: घर जाकर अक्षयपात्र सही वस्तुएँ देने लगे।
ईरण्णा अक्षयपात्र लेकर घर पहुँचा। इधर ईरण्णा की पत्नी ने गोपालन की नक़ल में गाँव भर को न्योता दे रखा था। ईरण्णा उसे अक्षयपात्र के बारे में बता पाता इसके पहले ईरण्णा की पत्नी ने अक्षयपात्र उठाया और आमंत्रण पर आए हुए गाँव के लोगों को भोजन कराने जा पहुँची।
‘अपनी इच्छानुसार भोजन, फल एवं मिठाइयाँ माँगिए!’ वह लोगों से कहती। लोग जैसे ही अपनी इच्छा बताते और ईरण्णा की पत्नी उनकी इच्छा पूरी करने के लिए अक्षयपात्र को उनके सामने रखे केले के पत्ते पर पलटती वैसे ही अक्षयपात्र से दो नाई निकलते और इच्छा करने वाले का सिर मूँड़ देते। इस प्रकार गाँव के सभी स्त्री-पुरुषों का सिर मुँड़ गया और वे सभी ईरण्णा और उसकी पत्नी को बुरा-भला कहते हुए चले गए।
ईरण्णा की पत्नी इस घटना से आग-बबूला हो उठी। उसने क्रोध से खौलते हुए चिल्लाकर उस अक्षयपात्र से पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया?
‘यह हमने नहीं अपितु तुम्हारे लालच ने किया। क्या तुम्हें पता नहीं है कि लालच स्वयं एक बुरी बला होती है।’ इतना कहकर अक्षयपात्र के दोनों नाई अदृश्य हो गए तथा अक्षयपात्र भी हवा में विलीन हो गया। ईरण्णा और उसकी पत्नी को लालच करने का दंड मिल चुका था।
- पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 223)
- संपादक : शरद सिंह
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
- संस्करण : 2009
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