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शुआन-गिरि

shuan giri

निकोबार के एक छोटे से गाँव में एक युवक रहता था जिसका नाम था शुआन। वह अपने माता-पिता से बहुत प्रेम करता था तथा उनकी आज्ञा मानता था। शुआन अपने पिता ऐरांग के साथ नारियल, सुपारी, केवड़ा और जिमीकंद की खेती करता और मछली पकड़ने जाता।

एक दिन शुआन और उसका पिता ऐरांग मछली पकड़ने गए। समुद्र में होड़ी (नाव) उतारने से पहले शुआन ने कुछ घोंघे बटोर लिए जिन्हें मछली के लिए चारा बनाया जा सकता था। ऐरांग ने खाने-पीने का सामन होड़ी पर लाद लिया। सबसे अंत में एक मज़बूत जाल होड़ी पर रखा और पिता-पुत्र होड़ी में बैठकर चल पड़े मछलियाँ पकड़ने।

समुद्र में बहुत दूर निकल जाने पर एक स्थान पर ऐरांग ने शुआन से लंगर डालने को कहा। शुआन ने लंगर डाल दिया। होड़ी रुक गई। ऐरांग ने जाल में घोंघे फँसाए और जाल को समुद्र में डाल दिया। थोड़ी देर बाद उनके जाल में छोटी-बड़ी मछलियाँ फँसनी शुरू हो गईं। अभी वे लोग मछलियाँ पकड़ ही रहे थे कि ऐरांग को हवा की दिशा बदलती हुई प्रतीत हुई और लहरों की ध्वनि में भी अंतर गया। ऐरांग समझ गया कि तूफ़ान आने वाला है।

‘जल्दी से लंगर उठाओ। तूफ़ान आने वाला है। अब हमें घर लौट चलना चाहिए।’ ऐरांग ने जल्दी-जल्दी जाल समेटते हुए शुआन से कहा।

‘आपको कैसे पता चला कि तूफ़ान आने वाला है?’ शुआन ने ऐरांग से पूछा।

‘जब हवा की दिशा अचानक बदल जाए और लहरों के स्वर में परिवर्तन जाए तो समझ जाना चाहिए कि तूफ़ान निकट ही है। अच्छा, अब बातें बंद करो और तेज़ी से पतवार चलाओ।’ ऐरांग ने शुआन से कहा।

तूफ़ान के आसन्न संकट को देखकर पिता-पुत्र शीघ्रता से नाव खेने लगे। अभी वे तट के पास पहुँच भी नहीं पाए थे कि तूफ़ान गया। हवाएँ तेज़ हो गईं और लहरें पर्वत के समान ऊँची उठने लगीं। एक लहर ने ऐरांग और शुआन की नाव को अपने चपेट में ले लिया। लहर में फँसते ही नाव पलट गई और ऐरांग एवं शुआन पानी में डूबने लगे। यद्यपि वे दोनों अच्छे तैराक थे किंतु तूफ़ान की लहरों के आगे भला कौन टिक सका है? ऐरांग समुद्र में डूब गया और शुआन लहरों में डूबता-उतराता हुआ एक चट्टान पर फिंका गया। वह मूर्छित हो गया था।

शुआन की जब मूर्छा टूटी तो उसने स्वयं को समुद्र में उभरी हुई एक चट्टान पर पाया। उसके चारो ओर जल ही जल था। उसके पिता ऐरांग का कहीं पता नहीं था। वह ऐसी दुर्गम चट्टान पर स्वयं को अकेला पाकर घबरा गया और रोने लगा। शुआन का रूदन सुनकर एक व्हेल चली आई।

‘तुम क्यों रो रहे हो?’ व्हेल ने शुआन से पूछा।

‘मेरे पिता समुद्र में डूब गए हैं और मैं यहाँ फँस गया हूँ। होड़ी के बिना मैं अपने घर नहीं पहुँच सकता हूँ जबकि मेरी माँ, मेरी, और मेरे पिता की प्रतीक्षा कर रही होंगी।’ शुआन ने व्हेल को बताया।

‘तुम चिंता मत करो! मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा दूँगी। लेकिन अभी मुझे कहीं और जाना है और मेरे पीठ पीछे मेरी बेटी अकेली रह जाएगी। अत: तुम मेरे लौटने तक मेरी बेटी के पास रुको और उसका ध्यान रखो। फिर मैं लौटने पर तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा दूँगी।’ व्हेल ने शुआन से कहा।

‘ठीक है।’ शुआन बोला। इसके सिवा उसके पास और कोई चारा भी नहीं था।

व्हेल ने शुआन को अपनी पीठ पर बिठाया और गहरे समुद्र में गोता लगा गई। समुद्र के तल में उसका घर था। घर पहुँचकर व्हेल ने शुआन से अपनी बेटी का परिचय कराया।

‘ये है मेरी बेटी जिसका तुम्हें ध्यान रखना है।’ व्हेल ने अपनी बेटी की ओर संकेत करते हुए कहा।

शुआन व्हेल की बेटी को देखकर सम्मोहित-सा हो गया। उसके सामने एक अपूर्व सुंदरी जलपरी थी जिसका ऊपर का आधा शरीर युवती का था और नीचे का आधा शरीर मछली का था।

‘यह शुआन है जो तुम्हारा ध्यान रखेगा। इससे डरना मत। अब मैं जाती हूँ।’ कहकर व्हेल चली गई।

‘बैठो शुआन!' जलपरी ने मूँगे का एक मोढ़ा शुआन की ओर सरकाते हुए कहा।

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ सम्मेहित-सा शुआन बैठना भूल कर पूछने लगा।

‘गिरि!’ जलपरी ने लजाते हुए अपना नाम बताया।

‘जितनी सुंदर तुम हो उतना ही सुंदर तुम्हारा नाम है। शुआन ने प्रशंसा करते हुए कहा।

गिरि और शुआन में शीघ्र ही मित्रता हो गई और फिर धीरे-धीरे यह मित्रता प्रेम में परिवर्तित हो गई। दोनों ने तय किया कि व्हेल के आने पर वे उससे विवाह की अनुमति ले लेंगे।

शुआन प्राय: गिरि के सौंदर्य की प्रशंसा करता रहता। एक दिन शुआन ने गिरि के चेहरे को देखते हुए कहा, तुम्हारा चेहरा इतना सुंदर है कि मैं इसकी सुंदरता का वर्णन ठीक-ठीक व्यक्त भी नहीं कर पाता हूँ। यदि तुम दर्पण में अपनी सुंदरता देखती तो स्वयं पर मुग्ध हो जाती।’

‘दर्पण? यह दर्पण क्या होता है?’ गिरि ने पूछा। उसने कभी दर्पण नहीं देखा था और उसके बारे में किसी से सुना था।

‘दर्पण एक ऐसा काँच होता है जिसमें एक ओर मसाला लगा होता है और दूसरी ओर अपना चेहरा देखा जा सकता है।’ शुआन ने दर्पण के बारे में बताने का प्रयात किया।

‘क्या दर्पण में मैं भी अपना चेहरा देख सकूँगी?’ गिरि ने आश्चर्य से पूछा।

‘अवश्य!'

‘तो फिर तुम मेरे लिए दर्पण ला दो।’ गिरि ने शुआन से आग्रह किया।

‘दर्पण तो मेरे घर पर है और घर तो मैं तभी जा सकूँगा जब तुम्हारी माँ मुझे पहुँचाएँगी।’ शुआन ने कहा।

‘वह तो मैं भी तुम्हें पहुँचा सकती हूँ।’ गिरी बोली।

‘लेकिन तुम्हारी माँ नाराज़ हो जाएँगी।’

‘नहीं, वे नाराज़ नहीं होंगी। तुम अपने घर जाना, अपनी माँ से मिलना, मेरे लिए दर्पण लेना और वापस जाना। फिर जब माँ तुम्हें पहुँचाएँगी तब फिर चले जाना। गिरि ने भोलेपन से कहा।

शुआन को गिरि की बात जंच गई। वह भी मन ही मन अपनी माँ से मिलने के लिए व्याकुल था। वह गिरि के साथ अपने घर के लिए चल पड़ा। तट के पास एक चट्टान की ओट में पहुँचकर गिरि रुक गई।

‘मैं यहीं रुकी हूँ। अब तुम अपने घर जाओ और माँ से मिलकर, दर्पण लेकर जल्द लौट आना। मैं यही तुम्हारी राह देखूँगी।’ गिरि ने कहा।

‘मैं जल्दी आऊँगा। शुआन ने कहा और अपने घर चल पड़ा। गिरि वहीं ठहरकर प्रतीक्षा करने लगी।

शुआन जब अपने घर के निकट पहुँचा तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि में ‘सुअर पर्व' मनाया जा रहा था। उसके घर में लोगों की भीड़ थी। घर पहुँचकर शुआन ने अपनी माँ को ढूँढ़ना शुरू किया।

‘मेरे घर में यह क्या हो रहा है?’ शुआन ने एक आदमी से पूछा।

'ऐरांग और शुआन के मरने के बाद हमने उनकी आत्माओं के लिए शांति-प्रार्थना की है और अब उन दोनों की याद में ‘सुअर पर्व’ मना रहे हैं।’ उस आदमी ने उत्तर दिया।

‘लेकिन मैं ही शुआन हूँ और मैं जीवित हूँ।’ शुआन ने उस आदमी से कहा।

अन्य लोगों ने भी शुआन की बात सुनी। भीड़ में से एक आदमी शुआन की माँ को वहाँ ले आया।

‘माँ, देखो मैं शुआन, मैं जीवित हूँ।’ शुआन अपनी माँ को देखकर प्रसन्नता से चिल्लाया।

‘चीख़ो मत! यदि तुम शुआन हो तो तुम्हारा पिता ऐरांग कहाँ है? और तुम अब तक कहाँ थे?’ शुआन की माँ अविश्वास भरे स्वर में पूछने लगी।

‘पिता डूबकर मारे गए और मैं अब तक एक व्हेल मछली के घर में रहा।’ शुआन ने बताया।

‘व्हेल मछली के घर में? हो..हो...हो...’जिसने भी यह सुना वह शुआन पर हँसने लगा। किसी को भी शुआन की बात पर विश्वास नहीं हुआ। शुआन की माँ को भी नहीं।

‘यह तो कोई बहुरूपिया है जो स्वयं को शुआन बता रहा है।’ किसी ने कहा।

‘हाँ, हाँ, ऐसे बहुरुपिया को तो पत्थर मार-मारकर भगा देना चाहिए।’ किसी अन्य ने कहा।

इसके बाद भीड़ ने शुआन को मारना-पीटना शुरू कर दिया। शुआन अपने प्राण बचाकर भागा। शुआन को भागते देखकर भीड़ उसके पीछे-पीछे दौड़ी और उसे पत्थर मारने लगी।

शुआन उसी ओर भागा जा रहा था जिधर गिरि चट्टान के पीछे छिपी हुई उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। शुआन अभी तट के पास पहुँच भी नहीं पाया था कि एक बड़ा-सा पत्थर आकर शुआन के सिर पर लगा और शुआन तत्काल गिर पड़ा। कुछ ही पलों में उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। शुआन को मृत देखकर भीड़ वापस चली गई।

गिरि शुआन के दुखद अंत से अनजान चट्टान के पीछे शुआन के आने की प्रतीक्षा करती रही। कुछ दिन बाद व्हेल लौटी तो उसने अपनी बेटी और को घर पर नहीं पाया। तभी एक छोटी मछली ने बताया कि गिरि एक चट्टान के पीछे खड़ी शुआन की प्रतीक्षा कर रही है। व्हेल गिरि के पास पहुँची। उसने गिरि को समझा-बुझा कर लौट चलने को कहा किंतु गिरि नहीं मानी। उसका विश्वास था कि एक एक दिन उसका शुआन उसके पास अवश्य लौटेगा। वह उसी चट्टान पीछे कई दिन, कई माह, कई वर्ष शुआन के लौटने की प्रतीक्षा करती रही।

निकोबारी मानते हैं गिरि आज भी उसी चट्टान के पीछे शुआन की प्रतीक्षा कर रही है। पूर्णिमा की रात्रि में समुद्र में उस चट्टान की ओर मछली पकड़ने जाने वाले मछुआरों को भ्रम होता है कि गिरि रो रही है और उसी सिसकी का स्वर समुद्र की लहरों पर तैर रहा है।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 116)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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