निकोबार के एक छोटे से गाँव में एक युवक रहता था जिसका नाम था शुआन। वह अपने माता-पिता से बहुत प्रेम करता था तथा उनकी आज्ञा मानता था। शुआन अपने पिता ऐरांग के साथ नारियल, सुपारी, केवड़ा और जिमीकंद की खेती करता और मछली पकड़ने जाता।
एक दिन शुआन और उसका पिता ऐरांग मछली पकड़ने गए। समुद्र में होड़ी (नाव) उतारने से पहले शुआन ने कुछ घोंघे बटोर लिए जिन्हें मछली के लिए चारा बनाया जा सकता था। ऐरांग ने खाने-पीने का सामन होड़ी पर लाद लिया। सबसे अंत में एक मज़बूत जाल होड़ी पर रखा और पिता-पुत्र होड़ी में बैठकर चल पड़े मछलियाँ पकड़ने।
समुद्र में बहुत दूर निकल जाने पर एक स्थान पर ऐरांग ने शुआन से लंगर डालने को कहा। शुआन ने लंगर डाल दिया। होड़ी रुक गई। ऐरांग ने जाल में घोंघे फँसाए और जाल को समुद्र में डाल दिया। थोड़ी देर बाद उनके जाल में छोटी-बड़ी मछलियाँ फँसनी शुरू हो गईं। अभी वे लोग मछलियाँ पकड़ ही रहे थे कि ऐरांग को हवा की दिशा बदलती हुई प्रतीत हुई और लहरों की ध्वनि में भी अंतर आ गया। ऐरांग समझ गया कि तूफ़ान आने वाला है।
‘जल्दी से लंगर उठाओ। तूफ़ान आने वाला है। अब हमें घर लौट चलना चाहिए।’ ऐरांग ने जल्दी-जल्दी जाल समेटते हुए शुआन से कहा।
‘आपको कैसे पता चला कि तूफ़ान आने वाला है?’ शुआन ने ऐरांग से पूछा।
‘जब हवा की दिशा अचानक बदल जाए और लहरों के स्वर में परिवर्तन आ जाए तो समझ जाना चाहिए कि तूफ़ान निकट ही है। अच्छा, अब बातें बंद करो और तेज़ी से पतवार चलाओ।’ ऐरांग ने शुआन से कहा।
तूफ़ान के आसन्न संकट को देखकर पिता-पुत्र शीघ्रता से नाव खेने लगे। अभी वे तट के पास पहुँच भी नहीं पाए थे कि तूफ़ान आ गया। हवाएँ तेज़ हो गईं और लहरें पर्वत के समान ऊँची उठने लगीं। एक लहर ने ऐरांग और शुआन की नाव को अपने चपेट में ले लिया। लहर में फँसते ही नाव पलट गई और ऐरांग एवं शुआन पानी में डूबने लगे। यद्यपि वे दोनों अच्छे तैराक थे किंतु तूफ़ान की लहरों के आगे भला कौन टिक सका है? ऐरांग समुद्र में डूब गया और शुआन लहरों में डूबता-उतराता हुआ एक चट्टान पर फिंका गया। वह मूर्छित हो गया था।
शुआन की जब मूर्छा टूटी तो उसने स्वयं को समुद्र में उभरी हुई एक चट्टान पर पाया। उसके चारो ओर जल ही जल था। उसके पिता ऐरांग का कहीं पता नहीं था। वह ऐसी दुर्गम चट्टान पर स्वयं को अकेला पाकर घबरा गया और रोने लगा। शुआन का रूदन सुनकर एक व्हेल चली आई।
‘तुम क्यों रो रहे हो?’ व्हेल ने शुआन से पूछा।
‘मेरे पिता समुद्र में डूब गए हैं और मैं यहाँ फँस गया हूँ। होड़ी के बिना मैं अपने घर नहीं पहुँच सकता हूँ जबकि मेरी माँ, मेरी, और मेरे पिता की प्रतीक्षा कर रही होंगी।’ शुआन ने व्हेल को बताया।
‘तुम चिंता मत करो! मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा दूँगी। लेकिन अभी मुझे कहीं और जाना है और मेरे पीठ पीछे मेरी बेटी अकेली रह जाएगी। अत: तुम मेरे लौटने तक मेरी बेटी के पास रुको और उसका ध्यान रखो। फिर मैं लौटने पर तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा दूँगी।’ व्हेल ने शुआन से कहा।
‘ठीक है।’ शुआन बोला। इसके सिवा उसके पास और कोई चारा भी नहीं था।
व्हेल ने शुआन को अपनी पीठ पर बिठाया और गहरे समुद्र में गोता लगा गई। समुद्र के तल में उसका घर था। घर पहुँचकर व्हेल ने शुआन से अपनी बेटी का परिचय कराया।
‘ये है मेरी बेटी जिसका तुम्हें ध्यान रखना है।’ व्हेल ने अपनी बेटी की ओर संकेत करते हुए कहा।
शुआन व्हेल की बेटी को देखकर सम्मोहित-सा हो गया। उसके सामने एक अपूर्व सुंदरी जलपरी थी जिसका ऊपर का आधा शरीर युवती का था और नीचे का आधा शरीर मछली का था।
‘यह शुआन है जो तुम्हारा ध्यान रखेगा। इससे डरना मत। अब मैं जाती हूँ।’ कहकर व्हेल चली गई।
‘बैठो शुआन!' जलपरी ने मूँगे का एक मोढ़ा शुआन की ओर सरकाते हुए कहा।
‘तुम्हारा नाम क्या है?’ सम्मेहित-सा शुआन बैठना भूल कर पूछने लगा।
‘गिरि!’ जलपरी ने लजाते हुए अपना नाम बताया।
‘जितनी सुंदर तुम हो उतना ही सुंदर तुम्हारा नाम है। शुआन ने प्रशंसा करते हुए कहा।
गिरि और शुआन में शीघ्र ही मित्रता हो गई और फिर धीरे-धीरे यह मित्रता प्रेम में परिवर्तित हो गई। दोनों ने तय किया कि व्हेल के आने पर वे उससे विवाह की अनुमति ले लेंगे।
शुआन प्राय: गिरि के सौंदर्य की प्रशंसा करता रहता। एक दिन शुआन ने गिरि के चेहरे को देखते हुए कहा, ‘ तुम्हारा चेहरा इतना सुंदर है कि मैं इसकी सुंदरता का वर्णन ठीक-ठीक व्यक्त भी नहीं कर पाता हूँ। यदि तुम दर्पण में अपनी सुंदरता देखती तो स्वयं पर मुग्ध हो जाती।’
‘दर्पण? यह दर्पण क्या होता है?’ गिरि ने पूछा। उसने कभी दर्पण नहीं देखा था और न उसके बारे में किसी से सुना था।
‘दर्पण एक ऐसा काँच होता है जिसमें एक ओर मसाला लगा होता है और दूसरी ओर अपना चेहरा देखा जा सकता है।’ शुआन ने दर्पण के बारे में बताने का प्रयात किया।
‘क्या दर्पण में मैं भी अपना चेहरा देख सकूँगी?’ गिरि ने आश्चर्य से पूछा।
‘अवश्य!'
‘तो फिर तुम मेरे लिए दर्पण ला दो।’ गिरि ने शुआन से आग्रह किया।
‘दर्पण तो मेरे घर पर है और घर तो मैं तभी जा सकूँगा जब तुम्हारी माँ मुझे पहुँचाएँगी।’ शुआन ने कहा।
‘वह तो मैं भी तुम्हें पहुँचा सकती हूँ।’ गिरी बोली।
‘लेकिन तुम्हारी माँ नाराज़ हो जाएँगी।’
‘नहीं, वे नाराज़ नहीं होंगी। तुम अपने घर जाना, अपनी माँ से मिलना, मेरे लिए दर्पण लेना और वापस आ जाना। फिर जब माँ तुम्हें पहुँचाएँगी तब फिर चले जाना। गिरि ने भोलेपन से कहा।
शुआन को गिरि की बात जंच गई। वह भी मन ही मन अपनी माँ से मिलने के लिए व्याकुल था। वह गिरि के साथ अपने घर के लिए चल पड़ा। तट के पास एक चट्टान की ओट में पहुँचकर गिरि रुक गई।
‘मैं यहीं रुकी हूँ। अब तुम अपने घर जाओ और माँ से मिलकर, दर्पण लेकर जल्द लौट आना। मैं यही तुम्हारी राह देखूँगी।’ गिरि ने कहा।
‘मैं जल्दी आऊँगा। शुआन ने कहा और अपने घर चल पड़ा। गिरि वहीं ठहरकर प्रतीक्षा करने लगी।
शुआन जब अपने घर के निकट पहुँचा तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि में ‘सुअर पर्व' मनाया जा रहा था। उसके घर में लोगों की भीड़ थी। घर पहुँचकर शुआन ने अपनी माँ को ढूँढ़ना शुरू किया।
‘मेरे घर में यह क्या हो रहा है?’ शुआन ने एक आदमी से पूछा।
'ऐरांग और शुआन के मरने के बाद हमने उनकी आत्माओं के लिए शांति-प्रार्थना की है और अब उन दोनों की याद में ‘सुअर पर्व’ मना रहे हैं।’ उस आदमी ने उत्तर दिया।
‘लेकिन मैं ही शुआन हूँ और मैं जीवित हूँ।’ शुआन ने उस आदमी से कहा।
अन्य लोगों ने भी शुआन की बात सुनी। भीड़ में से एक आदमी शुआन की माँ को वहाँ ले आया।
‘माँ, देखो मैं शुआन, मैं जीवित हूँ।’ शुआन अपनी माँ को देखकर प्रसन्नता से चिल्लाया।
‘चीख़ो मत! यदि तुम शुआन हो तो तुम्हारा पिता ऐरांग कहाँ है? और तुम अब तक कहाँ थे?’ शुआन की माँ अविश्वास भरे स्वर में पूछने लगी।
‘पिता डूबकर मारे गए और मैं अब तक एक व्हेल मछली के घर में रहा।’ शुआन ने बताया।
‘व्हेल मछली के घर में? हो..हो...हो...’जिसने भी यह सुना वह शुआन पर हँसने लगा। किसी को भी शुआन की बात पर विश्वास नहीं हुआ। शुआन की माँ को भी नहीं।
‘यह तो कोई बहुरूपिया है जो स्वयं को शुआन बता रहा है।’ किसी ने कहा।
‘हाँ, हाँ, ऐसे बहुरुपिया को तो पत्थर मार-मारकर भगा देना चाहिए।’ किसी अन्य ने कहा।
इसके बाद भीड़ ने शुआन को मारना-पीटना शुरू कर दिया। शुआन अपने प्राण बचाकर भागा। शुआन को भागते देखकर भीड़ उसके पीछे-पीछे दौड़ी और उसे पत्थर मारने लगी।
शुआन उसी ओर भागा जा रहा था जिधर गिरि चट्टान के पीछे छिपी हुई उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। शुआन अभी तट के पास पहुँच भी नहीं पाया था कि एक बड़ा-सा पत्थर आकर शुआन के सिर पर लगा और शुआन तत्काल गिर पड़ा। कुछ ही पलों में उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। शुआन को मृत देखकर भीड़ वापस चली गई।
गिरि शुआन के दुखद अंत से अनजान चट्टान के पीछे शुआन के आने की प्रतीक्षा करती रही। कुछ दिन बाद व्हेल लौटी तो उसने अपनी बेटी और को घर पर नहीं पाया। तभी एक छोटी मछली ने बताया कि गिरि एक चट्टान के पीछे खड़ी शुआन की प्रतीक्षा कर रही है। व्हेल गिरि के पास पहुँची। उसने गिरि को समझा-बुझा कर लौट चलने को कहा किंतु गिरि नहीं मानी। उसका विश्वास था कि एक न एक दिन उसका शुआन उसके पास अवश्य लौटेगा। वह उसी चट्टान पीछे कई दिन, कई माह, कई वर्ष शुआन के लौटने की प्रतीक्षा करती रही।
निकोबारी मानते हैं गिरि आज भी उसी चट्टान के पीछे शुआन की प्रतीक्षा कर रही है। पूर्णिमा की रात्रि में समुद्र में उस चट्टान की ओर मछली पकड़ने जाने वाले मछुआरों को भ्रम होता है कि गिरि रो रही है और उसी सिसकी का स्वर समुद्र की लहरों पर तैर रहा है।
nikobar ke ek chhote se gaanv mein ek yuvak rahta tha jiska naam tha shuan. wo apne mata pita se bahut prem karta tha tatha unki aagya manata tha. shuan apne pita airang ke saath nariyal, supari, kevDa aur jimikand ki kheti karta aur machhli pakaDne jata.
ek din shuan aur uska pita airang machhli pakaDne ge. samudr mein hoDi (naav) utarne se pahle shuan ne kuch ghonghe bator liye jinhen machhli ke liye chara banaya ja sakta tha. airang ne khane pine ka saman hoDi par laad liya. sabse ant mein ek mazbut jaal hoDi par rakha aur pita putr hoDi mein baithkar chal paDe machhliyan pakaDne.
samudr mein bahut door nikal jane par ek sthaan par airang ne shuan se langar Dalne ko kaha. shuan ne langar Daal diya. hoDi ruk gai. airang ne jaal mein ghonghe phansaye aur jaal ko samudr mein Daal diya. thoDi der baad unke jaal mein chhoti baDi machhliyan phansni shuru ho gain. abhi ve log machhliyan pakaD hi rahe the ki airang ko hava ki disha badalti hui pratit hui aur lahron ki dhvani mein bhi antar aa gaya. airang samajh gaya ki tufan aane vala hai.
‘jaldi se langar uthao. tufan aane vala hai. ab hamein ghar laut chalna chahiye. ’ airang ne jaldi jaldi jaal samette hue shuan se kaha.
‘apko kaise pata chala ki tufan aane vala hai?’ shuan ne airang se puchha.
‘jab hava ki disha achanak badal jaye aur lahron ke svar mein parivartan aa jaye to samajh jana chahiye ki tufan nikat hi hai. achchha, ab baten band karo aur tezi se patvar chalao. ’ airang ne shuan se kaha.
tufan ke asann sankat ko dekhkar pita putr shighrata se naav khene lage. abhi ve tat ke paas pahunch bhi nahin pae the ki tufan aa gaya. havayen tez ho gain aur lahren parvat ke saman uunchi uthne lagin. ek lahr ne airang aur shuan ki naav ko apne chapet mein le liya. lahr mein phanste hi naav palat gai aur airang evan shuan pani mein Dubne lage. yadyapi ve donon achchhe tairak the kintu tufan ki lahron ke aage bhala kaun tik saka hai? airang samudr mein Doob gaya aur shuan lahron mein Dubta utrata hua ek chattan par phinka gaya. wo murchhit ho gaya tha.
shuan ki jab murchha tuti to usne svayan ko samudr mein ubhri hui ek chattan par paya. uske charo or jal hi jal tha. uske pita airang ka kahin pata nahin tha. wo aisi durgam chattan par svayan ko akela pakar ghabra gaya aur rone laga. shuan ka rudan sunkar ek vhel chali aai.
‘tum kyon ro rahe ho?’ vhel ne shuan se puchha.
‘mere pita samudr mein Doob ge hain aur main yahan phans gaya hoon. hoDi ke bina main apne ghar nahin pahunch sakta hoon jabki meri maan, meri, aur mere pita ki prtiksha kar rahi hongi. ’ shuan ne vhel ko bataya.
‘tum chinta mat karo! main tumhein tumhare ghar pahuncha dungi. lekin abhi mujhe kahin aur jana hai aur mere peeth pichhe meri beti akeli rah jayegi. atah tum mere lautne tak meri beti ke paas ruko aur uska dhyaan rakho. phir main lautne par tumhein tumhare ghar pahuncha dungi. ’ vhel ne shuan se kaha.
vhel ne shuan ko apni peeth par bithaya aur gahre samudr mein gota laga gai. samudr ke tal mein uska ghar tha. ghar pahunchakar vhel ne shuan se apni beti ka parichay karaya.
‘ye hai meri beti jiska tumhein dhyaan rakhna hai. ’ vhel ne apni beti ki or sanket karte hue kaha.
shuan vhel ki beti ko dekhkar sammohit sa ho gaya. uske samne ek apurv sundri jalapri thi jiska uupar ka aadha sharir yuvati ka tha aur niche ka aadha sharir machhli ka tha.
‘yah shuan hai jo tumhara dhyaan rakhega. isse Darna mat. ab main jati hoon. ’ kahkar vhel chali gai.
‘baitho shuan! jalapri ne munge ka ek moDha shuan ki or sarkate hue kaha.
‘tumhara naam kya hai?’ sammehit sa shuan baithna bhool kar puchhne laga.
‘giri!’ jalapri ne lajate hue apna naam bataya.
‘jitni sundar tum ho utna hi sundar tumhara naam hai. shuan ne prshansa karte hue kaha.
giri aur shuan mein sheeghr hi mitrata ho gai aur phir dhire dhire ye mitrata prem mein parivartit ho gai. donon ne tay kiya ki vhel ke aane par ve usse vivah ki anumti le lenge.
shuan prayah giri ke saundarya ki prshansa karta rahta. ek din shuan ne giri ke chehre ko dekhte hue kaha, ‘ tumhara chehra itna sundar hai ki main iski sundarta ka varnan theek theek vyakt bhi nahin kar pata hoon. yadi tum darpan mein apni sundarta dekhti to svayan par mugdh ho jati. ’
‘darpan? ye darpan kya hota hai?’ giri ne puchha. usne kabhi darpan nahin dekha tha aur na uske bare mein kisi se suna tha.
‘darpan ek aisa kaanch hota hai jismen ek or masala laga hota hai aur dusri or apna chehra dekha ja sakta hai. ’ shuan ne darpan ke bare mein batane ka prayat kiya.
‘kya darpan mein main bhi apna chehra dekh sakungi?’ giri ne ashcharya se puchha.
‘avashya!
‘to phir tum mere liye darpan la do. ’ giri ne shuan se agrah kiya.
‘darpan to mere ghar par hai aur ghar to main tabhi ja sakunga jab tumhari maan mujhe pahunchayengi. ’ shuan ne kaha.
‘vah to main bhi tumhein pahuncha sakti hoon. ’ giri boli.
‘lekin tumhari maan naraz ho jayengi. ’
‘nahin, ve naraz nahin hongi. tum apne ghar jana, apni maan se milna, mere liye darpan lena aur vapas aa jana. phir jab maan tumhein pahunchayengi tab phir chale jana. giri ne bholepan se kaha.
shuan ko giri ki baat janch gai. wo bhi man hi man apni maan se milne ke liye vyakul tha. wo giri ke saath apne ghar ke liye chal paDa. tat ke paas ek chattan ki ot mein pahunchakar giri ruk gai.
‘main yahin ruki hoon. ab tum apne ghar jao aur maan se milkar, darpan lekar jald laut aana. main yahi tumhari raah dekhungi. ’ giri ne kaha.
‘main jaldi auunga. shuan ne kaha aur apne ghar chal paDa. giri vahin thaharkar prtiksha karne lagi.
shuan jab apne ghar ke nikat pahuncha to use ye dekhkar ashcharya hua ki mein ‘suar parv manaya ja raha tha. uske ghar mein logon ki bheeD thi. ghar pahunchakar shuan ne apni maan ko DhunDhana shuru kiya.
‘mere ghar mein ye kya ho raha hai?’ shuan ne ek adami se puchha.
airang aur shuan ke marne ke baad hamne unki atmaon ke liye shanti pararthna ki hai aur ab un donon ki yaad mein ‘suar parv’ mana rahe hain. ’ us adami ne uttar diya.
‘lekin main hi shuan hoon aur main jivit hoon. ’ shuan ne us adami se kaha.
anya logon ne bhi shuan ki baat suni. bheeD mein se ek adami shuan ki maan ko vahan le aaya.
‘maan, dekho main shuan, main jivit hoon. ’ shuan apni maan ko dekhkar prasannata se chillaya.
‘chikho mat! yadi tum shuan ho to tumhara pita airang kahan hai? aur tum ab tak kahan the?’ shuan ki maan avishvas bhare svar mein puchhne lagi.
‘pita Dubkar mare ge aur main ab tak ek vhel machhli ke ghar mein raha. ’ shuan ne bataya.
‘vhel machhli ke ghar men? ho. . ho. . . ho. . . ’jisne bhi ye suna wo shuan par hansne laga. kisi ko bhi shuan ki baat par vishvas nahin hua. shuan ki maan ko bhi nahin.
‘yah to koi bahurupiya hai jo svayan ko shuan bata raha hai. ’ kisi ne kaha.
‘haan, haan, aise bahurupiya ko to patthar maar markar bhaga dena chahiye. ’ kisi anya ne kaha.
iske baad bheeD ne shuan ko marana pitna shuru kar diya. shuan apne praan bachakar bhaga. shuan ko bhagte dekhkar bheeD uske pichhe pichhe dauDi aur use patthar marne lagi.
shuan usi or bhaga ja raha tha jidhar giri chattan ke pichhe chhipi hui uski prtiksha kar rahi thi. shuan abhi tat ke paas pahunch bhi nahin paya tha ki ek baDa sa patthar aakar shuan ke sir par laga aur shuan tatkal gir paDa. kuch hi palon mein uske praan pakheru uD ge. shuan ko mrit dekhkar bheeD vapas chali gai.
giri shuan ke dukhad ant se anjan chattan ke pichhe shuan ke aane ki prtiksha karti rahi. kuch din baad vhel lauti to usne apni beti aur ko ghar par nahin paya. tabhi ek chhoti machhli ne bataya ki giri ek chattan ke pichhe khaDi shuan ki prtiksha kar rahi hai. vhel giri ke paas pahunchi. usne giri ko samjha bujha kar laut chalne ko kaha kintu giri nahin mani. uska vishvas tha ki ek na ek din uska shuan uske paas avashya lautega. wo usi chattan pichhe kai din, kai maah, kai varsh shuan ke lautne ki prtiksha karti rahi.
nikobari mante hain giri aaj bhi usi chattan ke pichhe shuan ki prtiksha kar rahi hai. purnima ki ratri mein samudr mein us chattan ki or machhli pakaDne jane vale machhuaron ko bhram hota hai ki giri ro rahi hai aur usi siski ka svar samudr ki lahron par tair raha hai.
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‘giri!’ jalapri ne lajate hue apna naam bataya.
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shuan ko giri ki baat janch gai. wo bhi man hi man apni maan se milne ke liye vyakul tha. wo giri ke saath apne ghar ke liye chal paDa. tat ke paas ek chattan ki ot mein pahunchakar giri ruk gai.
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‘yah to koi bahurupiya hai jo svayan ko shuan bata raha hai. ’ kisi ne kaha.
‘haan, haan, aise bahurupiya ko to patthar maar markar bhaga dena chahiye. ’ kisi anya ne kaha.
iske baad bheeD ne shuan ko marana pitna shuru kar diya. shuan apne praan bachakar bhaga. shuan ko bhagte dekhkar bheeD uske pichhe pichhe dauDi aur use patthar marne lagi.
shuan usi or bhaga ja raha tha jidhar giri chattan ke pichhe chhipi hui uski prtiksha kar rahi thi. shuan abhi tat ke paas pahunch bhi nahin paya tha ki ek baDa sa patthar aakar shuan ke sir par laga aur shuan tatkal gir paDa. kuch hi palon mein uske praan pakheru uD ge. shuan ko mrit dekhkar bheeD vapas chali gai.
giri shuan ke dukhad ant se anjan chattan ke pichhe shuan ke aane ki prtiksha karti rahi. kuch din baad vhel lauti to usne apni beti aur ko ghar par nahin paya. tabhi ek chhoti machhli ne bataya ki giri ek chattan ke pichhe khaDi shuan ki prtiksha kar rahi hai. vhel giri ke paas pahunchi. usne giri ko samjha bujha kar laut chalne ko kaha kintu giri nahin mani. uska vishvas tha ki ek na ek din uska shuan uske paas avashya lautega. wo usi chattan pichhe kai din, kai maah, kai varsh shuan ke lautne ki prtiksha karti rahi.
nikobari mante hain giri aaj bhi usi chattan ke pichhe shuan ki prtiksha kar rahi hai. purnima ki ratri mein samudr mein us chattan ki or machhli pakaDne jane vale machhuaron ko bhram hota hai ki giri ro rahi hai aur usi siski ka svar samudr ki lahron par tair raha hai.
स्रोत :
पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 116)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।