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चतुर लोमड़ी

chatur lomDi

जंगल में एक लोमड़ी रहती थी। वह छोटे-मोटे जानवरों का शिकार करके अपना पेट भरती। एक बार वह शिकार की खोज में घूमती-भटकती एक गाँव के निकट जा पहुँची। गाँव में पहुँचकर उसने देखा कि वहाँ लोग बड़े आराम से रहते हैं और उनके पालतू पशुओं को भी बढ़िया चारा पानी मिलता रहता है। वहाँ उसे अनेक मुर्गियाँ दिखाई दीं। मुर्गियाँ देखकर लोमड़ी की नीयत में खोट गई। इसके बाद तो लोमड़ी ने गाँव की मुर्गियों पर मानो धावा बोल दिया। लोमड़ी प्रतिदिन गाँव में जाती और दो-चार मुर्गियाँ खाकर चली आती। गाँव वाले लोमड़ी से तंग गए। उन्होंने मुर्गियों की पहरेदारी के लिए कुत्ते पाल लिए।

एक रात जब लोमड़ी मुर्गियाँ खाने गाँव में पहुँची तो कुत्तों ने लोमड़ी को घेर लिया। लोमड़ी डरकर भाग खड़ी हुई। भागते-भागते उसे ज़ोर की प्यास लग आई। लोमड़ी ने आस-पास पानी ढूँढ़ा किंतु उसे कहीं भी पानी दिखाई नहीं दिया। अब प्यास के मारे लोमड़ी का बुरा हाल था। लोमड़ी सोचने लगी कि वहाँ गाँव में पालतू पशुओं का जीवन कितना सुखद है, उन्हें खाने-पीने की चिंता नहीं करनी पड़ती है और ही उन्हें कहीं भटकना पड़ता है।

लोमड़ी को लगने लगा कि वह भूख-प्यास से दम तोड़ देगी, तभी उसे एक हाथी दिखाई दे गया। लोमड़ी की बुरी दशा देखकर हाथी रुक गया।

‘क्या बात है लोमड़ी बहन, तुम बहुत थकी हुई दिख रही हो। तबीयत तो ठीक है। न?’ हाथी ने लोमड़ी से पूछा।

‘मेरी तबीयत की क्या पूछते हो, हाथी भैया, प्यास के मारे मेरा दम निकला जा रहा है। अब तो मैं दो-चार घड़ी की मेहमान हूँ।’ लोमड़ी हाँफते हुए बोली। प्यास के कारण उसकी जीभ बाहर लटक गई थी।

‘यहाँ आस-पास पानी का कोई स्रोत नहीं है।’ हाथी ने कहा।

‘हाँ, इसीलिए तो मैं कह रही हूँ कि अब मेरा अंतकाल निकट गया है।’ लोमड़ी ने लड़खड़ाते हुए कहा।

‘देखो बहन, मैं तो सदा महीने भर के लायक पानी पीकर निकलता हूँ इसलिए मेरे पेट में अभी भी ढेर सारा पानी है। तुम ऐसा करो कि मेरे पेट में घुस जाओ और पानी पीकर निकल आना।’ हाथी ने कहा।

‘तुम बहुत दयालु हो हाथी भैया!' कहती हुई लोमड़ी हाथी के पेट में घुस गई।

हाथी के पेट में सचमुच बहुत पानी था। लोमड़ी ने जब जी भर पानी पी लिया तो उसने सिर उठाकर इधर-उधर देखा। उसे हाथी का कलेजा दिखाई दे गया। हाथी का कलेजा देखकर लोमड़ी के मुँह में पानी गया। उसने यह भी नहीं सोचा कि जिस हाथी ने उसके प्राण बचाए हैं, उस हाथी का कलेजा उसे नहीं खाना चाहिए। लोमड़ी ने हाथी का कलेजा खा लिया जिससे हाथी मर गया। हाथी के मरने पर उसका मुँह बंद हो गया और लोमड़ी हाथी के पेट में बंद रह गई। लोमड़ी को उस समय तक कोई चिंता नहीं हुई जब तक हाथी के पेट में पानी और शरीर के अंदर मांस रहा। जब पानी और मांस समाप्त हो गया तब लोमड़ी को हाथी के पेट से बाहर निकलने की चिंता होने लगी। तब तक हाथी की खाल इतनी कड़ी हो चुकी थी कि लोमड़ी उसे काट कर बाहर नहीं निकल सकती थी। वह घबरा कर उछल-कूद करने लगी।

उसी समय उधर से गाँव का मुखिया अपने साथियों के साथ निकला। उसने देखा कि मरे हुए हाथी के पेट से कोई आवाज़ रही है। मुखिया को बहुत आश्चर्य हुआ।

‘हाथी के पेट के भीतर कौन है?’ मुखिया ने पूछा।

‘मुझसे ये पूछने वाला कौन है?’ लोमड़ी ने कड़कते हुए स्वर में प्रत्युत्तर में प्रश्न किया।

‘मैं गाँव का मुखिया हूँ।’ मुखिया ने कहा। यह सुनकर लोमड़ी को लगा कि यदि उसने अपनी सच्चाई बता दी तो मुखिया उसे हाथी के पेट से नहीं निकालेगा। वह अपने गाँव की मुर्गियों को मारने वाले से बदला अवश्य लेगा।

‘अरे मूर्ख, तू मुझे पहचानता नहीं है क्या? मैं तेरी दादी हूँ।’ लोमड़ी ने मुखिया को डाँटते हुए कहा। मुखिया डाँट खाकर सिटपिटा गया।

‘मगर दादी, आप मरे हुए हाथी के पेट में क्या कर रही हैं?’ मुखिया ने पूछा।

‘मैं तो इस हाथी के पेट में बैठकर तुझसे मिलने रही थी लेकिन रास्ते में इसे एक शेर दिख गया। शेर को देखकर डर के मारे इसकी घड़कन बंद हो गई और ये मर गया। अब तुम इसका मुँह खोलो जिससे मैं बाहर जाऊँ और तुम्हें आशीर्वाद दूँ।’

लोमड़ी ने झूठा क़िस्सा सुनाते हुए कहा।

‘ठीक है दादी, मैं हाथी का मुँह खोलता हूँ, आप बाहर निकल आएँ।’ कहते हुए मुखिया ने हाथी का मुँह खोल दिया।

हाथी का मुँह खुलते ही लोमड़ी हाथी के पेट से निकल कर बाहर आई और पलक झपकते ही घने जंगल की ओर भाग खड़ी हुई। हाथी के मुँह से लोमड़ी को निकलकर भागते देखकर मुखिया सन्न रह गया किंतु उसके साथी हँस-हँसकर उसका मज़ाक उड़ाने लगे, ‘वो देखो तुम्हारी दादी भागी जा रही है।’

अपने साथियों द्वारा मज़ाक उड़ाए जाने पर मुखिया को लोमड़ी पर बहुत क्रोध आया। उसने तय कर लिया कि चाहे जो भी हो लेकिन वह लोमड़ी को पकड़कर उसे सज़ा देकर रहेगा। मुखिया ने गाँव लौटते ही मुनादी करा दी कि जो भी व्यक्ति लोमड़ी को पकड़ लेगा उसे ढेर सारा ईनाम दिया जाएगा। मुखिया की यह तरकीब काम कर गई।

एक बहेलिए ने ऐसा जाल बिछाया कि उसमें चिड़िया के समान लोमड़ी फँसी। उसने लोमड़ी को पकड़कर एक पिंजरे में बंद किया और मुखिया को सौंप दिया। मुखिया ने बहेलिए को ईनाम दिया और लोमड़ी के पिंजरे को गाँव के बीचो-बीच रखवा दिया। फिर मुखिया ने गाँव वालों को आदेश दिया कि गाँव का प्रत्येक आदमी उस लोमड़ी को प्रतिदिन एक डंडा मारा करे। गाँव वाले तो पहले से ही उस लोमड़ी से नाराज़ थे इसलिए उन लोगों ने प्रतिदिन लोमड़ी को डंडे मारना प्रारंभ कर दिया। डंडे की मार खा-खाकर लोमड़ी का शरीर सूज गया।

एक रात एक भूखा-प्यासा भेड़िया भटकते-भटकते गाँव में गया। उसने मुर्गियाँ देखीं तो उसके मुँह में पानी गया। भेड़िया सोचने लगा कि किस प्रकार मुर्गियों को खाया जाए? लोमड़ी ने भेड़िए को देखा तो उसे एक चालाकी सूझी।

‘भेड़िए भाई, भेड़िए भाई! क्या करने की सोच रहे हो?’ लोमड़ी ने भेड़िए से पूछा।

‘अरे, शोर मत करो। मैं मुर्गियाँ पकड़ने का उपाय सोच रहा हूँ।’ भेड़िए ने कहा।

‘ठीक है-ठीक है, तुम उपाय सोचो। मुझे तो आज कल कुछ करना ही नहीं पड़ता है, मुझे तो यहाँ बैठे-बैठे ढेर सारी मुर्गियाँ खाने को मिल जाती हैं।’ लोमड़ी ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘तुम्हें कौन देगा मुर्गियाँ? तुम झूठ बोलती हो।’ भेड़िए ने कहा।

‘अरे, इस गाँव का प्रत्येक व्यक्ति मुझे खाने को रोज़ एक मुर्गी देता है। तुम्हें मेरी बात का विश्वास हो रहा हो तो मेरा शरीर देख लो। क्या तुमने कभी इतनी मोटी लोमड़ी देखी है?’ लोमड़ी ने अपना शरीर दिखाते हुए कहा।

‘हाँ, तुम खा-खाकर मोटी तो हो गई हो लेकिन मुझे यह समझ में नहीं रहा है कि गाँव वाले मुर्गियाँ क्यों खिलाते हैं?’ भेड़िए को लोमड़ी की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

‘वह इसलिए क्यों कि गाँव के मुखिया को एक बार हाथी निगल गया था तब मैंने हाथी को मारकर मुखिया के प्राण बचाए थे। तब से मुखिया मेरा मित्र हो गया है और वह नहीं चाहता है कि मैं खाना ढूँढ़ने के लिए यहाँ-वहाँ भटकूँ।’ लोमड़ी ने कहा।

‘लेकिन तुमने हाथी को मारा कैसे?’ भेड़िए ने पूछा।

‘हुआ यूँ कि जब हाथी ने मुखिया को मारने के लिए अपनी सूँड़ उठाकर चिंघाड़ने के लिए मुँह खोला तो मैं उसके मुँह के रास्ते उसके पेट में जा घुसी और उसका कलेजा खाकर उसे मार डाली। इसके बाद मैं हाथी के मुँह के रास्ते बाहर निकल आई।’ लोमड़ी ने गर्व से कहा।

इतना सब सुनकर भेड़िए को विश्वास हो गया कि लोमड़ी सच कह रही है। ‘लोमड़ी बहन, मैं बहुत दिनों से भूखा हूँ। मेरे लिए भी कोई व्यवस्था करो न!’ भेड़िए ने अनुनय-विनय करते हुए कहा।

‘ठीक है। मुझे तुम्हारी दशा पर दया रही है इसलिए तुम ऐसा करो कि मेरे बदले इस पिंजरे में बैठ जाओ और मैं एक-दो दिन के लिए जंगल में घूम आती हूँ।’ लोमड़ी ने अहसान जताते हुए कहा।

‘तुम बहुत अच्छी हो लोमड़ी बहन।’ भेड़िया गद्गद् होते हुए बोला।

इसके बाद भेड़िए ने पिंजरे का दरवाज़ा खोलकर लोमड़ी को बाहर निकाल दिया और स्वयं पिंजरे में जा बैठा।

‘देखो, दो दिन बाद मैं लौट आऊँगी।’ कहते हुए लोमड़ी ने पिंजरे का दरवाज़ा बंद किया और वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गई।

इधर जब भोर हुई तो गाँव वालों ने भेड़िए को लोमड़ी समझकर डंडे मारने शुरू कर दिए। तब भेड़िए को असली बात समझ में गई किंतु अब वह कर भी क्या सकता था, वह तो पिंजरे में फँस चुका था और चतुर लोमड़ी वहाँ से बहुत दूर जा चुकी थी।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 142)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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