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कोंदा मारो-सिंगा मारो

konda maro singa maro

यह कहानी उस समय की है जब बस्तर के दक्षिणी भाग में और भी घना जंगल पाया जाता था। उस घने जंगल में सभी तरह के पशु और मनुष्य मिल-जुल कर रहते थे। जंगल के बीच में ही मनुष्य खेती करते थे और उनके पालतू पशु, जंगली पशुओं के साथ हिल-मिलकर रहते-खाते थे। वे दिन आजकल के दिनों से बिलकुल अलग थे। उन दिनों झरने गाना गाते थे और पेड़ राहगीरों पर पत्तों से पंखा झलते थे। जंगल में हज़ारों पक्षी भी रहते थे जो सुबह से शाम तक गाना गाते और यहाँ-वहाँ उड़ते रहते थे।

उसी जादुई जंगल में एक गाय रहती थी और एक शेरनी भी। दोनो में घनिष्ठ मित्रता थी। दोनों साथ-साथ खाती-पीती और घूमती थीं। उन दिनों शेर-शेरनी शाक-भाजी भी खाते थे। उन दिनों की एक और विशेषता यह भी थी कि शेरनी बछड़े को जन्म दे सकती थी और गाय शावक को। साथ-साथ घूमने वाली इन सहेलियों के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही था। गाय के पेट से शावक ने जन्म लिया था और शेरनी के पेट से बछड़े ने। गाय अपने शावक को बहुत प्रेम करती थी और शेरनी अपने बछड़े को दुलारती रहती थी। गाय और शेरनी एक-दूसरे के बच्चों को भी बहुत प्रेम करती थीं। शावक और बछड़े में भी घनिष्ठ मित्रता थी। वे दोनों साथ-साथ खेलते, खाते और घूमते थे।

एक दिन शेरनी और गाय एक खेत में चरने गईं। वहाँ उन्हें एक खीरा फला हुआ दिखा। खीरा देखकर शेरनी ने गाय से कहा, ‘बहन, यह खीरा देखकर मेरे मुँह में पानी गया है। अब तो मैं इसे खाए बिना नहीं रह सकती हूँ।’

‘हाँ, शेरनी बहन, मेरा भी यही हाल है। जैसे ही मैंने इस खीरे को देखा वैसे ही मेरा मन इसे खाने को ललच उठा है।’ गाय ने कहा।

‘अगर ऐसा है तो हम इस खीरे के दो टुकड़े कर लेते हैं, एक टुकड़ा तुम खा लो और एक टुकड़ा में खा लेती हूँ। आख़िर हम सहेलियाँ हैं और सदा मिल-बाँटकर खाती हैं।’ शेरनी ने कहा।

यह सुनकर गाय ने शेरनी की बात का समर्थन किया।

इसके बाद शेरनी और गाय ने खीरे को बेल से तोड़ा और उसके दो बराबर टुकड़े किए। एक टुकड़ा गाय ने लिया और दूसरा शेरनी ने। शेरनी ने अपने हिस्से का पूरा खीरा खा लिया जबकि गाय ने अपने हिस्से के खीरे का एक टुकड़ा अपने शावक के लिए बचा लिया। इसके बाद दोनों सहेलियाँ देर तक खेत में इधर-उधर चरती रहीं।

घर लौटने पर गाय ने साथ लाए खीरे के टुकड़े अपने शावक को खाने के लिए दिया। शावक ने बड़े चाव से उस टुकड़े को खाया। इसके बाद शावक अपने मित्र बछड़े के साथ खेलने जा पहुँचा।

‘अब कौन-सा खेल खेला जाए?’ बछड़े ने शावक से पूछा।

‘तुम सोचो कि कौन-सा खेल खेलना है? मैं तो थेड़ी देर आराम से बैठूँगा।’ शावक ने कहा।

‘लो, अभी तो हमने खेला भी नहीं और तुम थक गए। दाम देने से डरते हो क्या?’ बछड़े ने शावक से कहा।

‘नहीं, मैं दाम देने से नहीं डरता हूँ लेकिन क्या तुम सुस्ताना नहीं चाहते हो?’ शावक ने बछड़े से पूछा।

‘नहीं तो, भला मैं क्यों सुस्ताना चाहूँगा?’ बछड़े ने चकित होकर पूछा।

‘अरे? क्या तुमने अपना खीरा नहीं खाया है? क्या तुमने उसे बाद में खाने के लिए बचा रखा है?’ शावक ने बछड़े से पूछा।

‘खीरा? कैसा खीरा?’ बछड़े ने चकित होकर पूछा।

‘खीरा मतलब खीरा! क्या तुम्हारी माँ ने तुम्हें नहीं दिया? ज़रूर वह तुम्हें बाद में देने वाली होगी।’ शावक ने बछड़े से कहा।

खीरे का नाम सुनकर बछड़े के मुँह में पानी गया। वह दौड़ा-दौड़ा अपनी माँ शेरनी के पास पहुँचा। शेरनी ने उसे देखा तो दुलार भरे स्वर में पूछने लगी, ‘क्या बात है? आज तू जल्दी खेलकर लौट आया! स्वास्थ्य तो ठीक है तेरा?’

‘हाँ माँ, ठीक है। मैं अभी फिर खेलने जाऊंगा मगर पहले तुम मुझे वह खीरा दे दो जो तुम मेरे लिए लाई हो।’ बछड़े ने शेरनी ने कहा।

‘कौन-सा खीरा? मैं कोई खीरा नहीं लाई हूँ।’

‘तुम ज़रूर लाई हो माँ!’

‘लेकिन बेटा मैं खीरा नहीं लाई हूँ!’

‘तुम झूठ बोलती हो।’

‘नहीं बेटा, मैं झूठ नहीं बोल रही हूँ। मैं सचमुच खीरा नहीं लाई हूँ।’

‘ऐसा क्यों? मेरे दोस्त शावक के लिए उसकी माँ खीरा लाई है। तुम तो गाय मौसी के साथ खेत गई थीं। ज़रूर तुमने अकेले खीरा खा लिया होगा।’ बछड़े ने नाराज़ होते हुए कहा।

‘हाँ बेटा, बात तो सच है। मुझे बहुत ज़ोर की भूख लगी थी। तभी मुझे खीरा दिखाई दिया। गाय को भी भूख लगी थी। इसलिए हम दोनों ने खीरे के दो टुकड़े किए और खा लिए।’ शेरनी ने समझाते हुए बताया।

‘तुम झूठ बोलती हो! गाय मौसी ने खीरा नहीं खाया। वह अपने बेटे को बहुत प्यार करती है। वह अपने बेटे के लिए खीरा लेकर आई मगर तुम मुझे प्यार नहीं करती हो इसीलिए तुम मेरे लिए खीरा नहीं लाई।’

‘नहीं बेटा, तुमको धोखा हुआ है। मैंने स्वयं देखा था कि गाय ने अपने हिस्से का खीरा खा लिया था।’

‘नहीं मुझे कोई धोखा नहीं हुआ। मुझे शावक ने ख़ुद बताया कि उसकी माँ उसके लिए खीरा लाई थी। मगर तुम मेरे लिए नहीं लाई ऐसा क्यों किया तुमने? तुम जानती हो कि मुझे खीरा बहुत पसंद है। मुझे खीरा चाहिए। अभी और इसी समय।’ बछड़ें ने रोते और पैर पटकते हुए कहा।

‘देख बेटा, अब आज इस समय तो खीरा नहीं मिल सकता है। लेकिन कल तेरे लिए खीरा अवश्य लाऊँगी।’

बछड़ा बहुत देर तक हठ करता रहा, रोता रहा। बेटे की यह दशा देखकर शेरनी को गाय पर क्रोध आया और वह गाय के पास जाकर बोली, ‘देखो बहन, ये तुमने ठीक नहीं किया। अपने बेटे के लिए खीरा लाना था तो मुझे भी बता देती। मैं भी अपने बेटे के लिए खीरा ले आती। मेरे बेटे को इस बात का पता चला तो वह रोए जा रहा है। तुमने मेरे बेटे को दुख पहुँचाया है।’

‘मैंने ऐसा जानबूझ कर नहीं किया। तुम्हें याद होगा कि तुमने अपना हिस्सा मुझसे पहले खा लिया था। मैंने बाद में खाना शुरू किया था। खाते समय अचानक मुझे यह सूझा कि इतना स्वादिष्ट खीरा तो अपने बेटे को भी खिलाना चाहिए। बस, उसी समय मैंने खीरे का एक छोटा-सा टुकड़ा अपने शावक के लिए रख लिया था।’

‘मैं कुछ नहीं जानती! तुमने सहेली होकर मुझसे यह बात छिपाई। यह बहुत ग़लत है।’

‘ठीक है, मुझसे ग़लती हो गई। मुझे क्षमा कर दो।’

‘ठीक है, अब तुम क्षमा माँग रही हो तो मैं क्षमा कर देती हूँ। कल हम चरने कहाँ जाएँगी?’ शेरनी ने सामान्य होते हुए पूछा।

‘कल हम मैदान में चरने चलेंगी।’

‘ठीक है। लेकिन देखो, आइंदा अपने बेटे के लिए कुछ खाने का रखने से पहले मुझे बता देना।’

‘ठीक है। मैं ध्यान रखूँगी।’ गाय ने विश्वास दिलाया।

दूसरे दिन गाय और शेरनी घास चरने चल पड़ीं। दोनों चलते-चलते थोड़ा आगे-पीछे हो गईं। शेरनी पीछे, गाय आगे। शेरनी जब मैदान में पहुँची तो गाय नहीं दिखाई दी। उसने सोचा कि हो सकता है कि वह किसी दूसरे रास्ते से धीरे-धीरे रही हो शेरनी मैदान में चरने लगी और गाय की प्रतीक्षा करने लगी। बहुत देर हो गई किंतु गाय नहीं आई। शेरनी को उसकी चिंता हुई। वह घास चरना छोड़कर गाय को ढूँढ़ने चल पड़ी। शेरनी मैदान से बाहर निकलकर भाजी के खेत में पोखर के पास गई।

गाय कहाँ चली गई? यह सोचती हुई शेरनी उसे ढूँढ़ ही रही थी कि उसे गाय चिउर भाजी के खेत में दिखाई दी। शेरनी गाय को सही-सलामत देखकर बहुत ख़ुश हुई मगर उसे आश्चर्य हुआ कि मैदान में चरने की बात हुई थी तो गाय यहाँ चिउर भाजी के खेत में क्यों चर रही है? शेरनी गाय के पास पहुँची।

‘मैं वहाँ मैदान में कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ और तुम हो कि यहाँ मज़े से भाजी चर रही हो।’ शेरनी ने गाय से कहा।

‘अरे, मैंने समझा कि तुमने मुझे यहाँ आते हुए देख लिया होगा और तुम यहीं जाओगी।

‘मैं कैसे देख लेती? तुम तो मुझसे बहुत आगे निकल आई थी और कल तुमने ही मैदान में घास चरने की बात की थी।’

‘हाँ, कहा तो था मैंने। अचानक याद आया कि चिउर भाजी के पत्ते अब खाने लायक बड़े हो गए होंगे इसलिए मैं इधर निकल आई।’ गाय ने भोलेपन से कहा।

‘तुमने अपनी बात झुठलाई और मुझे धोखा दिया। ये बात ठीक नहीं है। तुम तो यहाँ अच्छी स्वादिष्ट चिउर भाजी खा रही हो और वहां मुझे मैदान में सूखी घास चरने को भेज दिया।’ शेरनी ने क्रोधित होते हुए कहा।

‘यदि तुम ऐसा समझती हो तो ऐसा ही सही। अब कल हम दोनों यहीं चिउर भाजी के खेत में आएँगी, ठीक है न!’

‘हाँ, ठीक है!’ शेरनी ने कहा।

मगर रास्ते में सोचने लगी कि गाय ने जानबूझ कर ऐसा किया, स्वयं भाजी के खेत में रुक गई और मुझे मैदान में भेज दिया। उधर गाय ने इसलिए ऐसा किया था क्योंकि उसके मन में इस बात की फाँस लग गई थी कि शेरनी ने खीरे को लेकर उसे उलाहना दिया था। इस प्रकार दोनों सहेलियाँ मन ही मन एक-दूसरे के प्रति क्रोध करती हुई घर लौटीं।

अगले दिन गाय और शेरनी चिउर भाजी के खेत में चरने के लिए निकलीं किंतु गाय चिउर भाजी के खेत में जाने के बदले मैदान में घास चरने जा पहुँची। यह देखकर शेरनी को बहुत क्रोध आया। उसे लगा कि गाय उसे जानबूझ कर तंग कर रही है। जब वह मैदान में चरने जाने की बात करती है तो खेत में जा पहुँचती है और जब चिउर भाजी के खेत में जाने की बात करती है तो मैदान में जा पहुँचती है। शेरनी को विश्वास हो गया कि गाय उसे अब अपनी सहेली नहीं मानती है अन्यथा वह ऐसा छल भरा व्यवहार नहीं करती। शेरनीं का क्रोध इतना बढ़ा कि उसका स्वयं पर वश नहीं रहा और क्रोध के वशीभूत वह गाय को मारकर खा गई।

शाम को शेरनी जब घर लौटी तो उसके साथ गाय को देखकर शावक ने शेरनी से पूछा, ‘शेरनी मौसी, मेरी माँ कहाँ है?’

‘मुझे क्या पता?’ शेरनी ने कहा।

‘वह तो तुम्हारे साथ चरने गई थी और तुम कहती हो कि तुम्हें पता नहीं?’ शावक ने आश्चर्य से पूछा।

‘नहीं, वह मेरे साथ नहीं गई थी। उसे तो मैंने सुबह से नहीं देखा।’ शेरनी ने झूठ बोलते हुए कहा।

‘लेकिन मैंने तो माँ उसे तुम्हारे साथ जाते देखा था।’ शावक हठ करते हुए बोला।

‘ओह, हाँ, याद आया! वह सुबह मेरे साथ ही निकली थी किंतु फिर मेरा साथ छोड़कर कहीं और चली गई।’ शेरनी ने फिर झूठ बोला। उसी समय शेरनी ने जम्हाई ली। शावक को शेरनी के मुँह में ख़ून लगा दिखाई दिया। वह समझ गया कि शेरनी ने उसकी माँ को मार दिया है।

‘मौसी, तुम झूठ बोल रही हो। तुम्हारे मुँह में लगा हुआ ख़ून इस बात का सबूत है कि तुमने मेरी माँ को मारकर खा लिया है। अब मैं अनाथ हो गया हूँ इसलिए अब तुम्हें मेरा लालन-पालन करना होगा।’ शावक ने शेरनी से कहा।

शावक की बात सुनकर शेरनी को अपने किए का पछतावा हुआ और उसने सच्चाई स्वीकार करते हुए शावक के लालन-पालन करने की शर्त स्वीकार कर ली। शेरनी अपने बछड़े के साथ शावक को भी पालने लगी। दोनों मित्र सगे भाइयों की तरह साथ-साथ रहने लगे।

एक दिन शावक ने बछड़े से कहा कि चलो शिकार खेलने चलते हैं। बछड़ा सहर्ष तैयार हो गया। धनुष-बाण और तलवार लेकर दोनों शिकार के लिए निकल पड़े। शावक ने जानबूझ कर अपनी तलवार घर में ही छोड़ दी। जंगल में पहुँचने पर शावक ने बछड़े से कहा कि वह अपनी तलवार घर में ही भूल आया है।

‘तुम आगे बढ़ो तब तक मैं दौड़ कर अपनी तलवार ले आता हूँ’ शावक बोला।

‘नहीं, मुझे अकेले डर लगेगा। तुम मेरी तलवार ले लो।’ बछड़े ने कहा।

‘मुझे तुम्हारी तलवार से शिकार करने में मज़ा नहीं आएगा। यदि तुम्हें आगे बढ़ने में डर लग रहा है तो तुम यहीं पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताओ तब तक मैं घर से अपनी तलवार ले आता हूँ।’ शावक ने कहा।

‘ठीक है। जल्दी आना।’ बछड़े ने कहा और वहीं एक पेड़ की छाँव में बैठ गया।

शावक बछड़े को छोड़कर घर जा पहुँचा। उस समय शेरनी घर पर ही थी। शावक ने अपनी तलवार उठाई और शेरनी के सामने जा खड़ा हुआ।

‘तुमने मेरी माँ को मारा था, अब मैं तुम्हें मारूँगा।’ कहते हुए शावक ने शेरनी की गर्दन तलवार से काट दी। शेरनी को मारने के बाद शावक वापस बछड़े के पास पहुँचा। बछड़े ने तलवार में ख़ून लगा देखा तो वह समझ गया कि शावक ने उसकी माँ को मार डाला है।

‘तुमने मेरी माँ को मार दिया न?’ बछड़े ने पूछा।

‘नहीं, नहीं तो!’ शावक अचकचाया।

‘तुम्हारी तलवार में लगा ख़ून इस बात का सबूत है कि तुमने मेरी माँ को मार दिया है।’ बछड़ा बोला।

‘हाँ, तुम ठीक कहते हो। मैंने तुम्हारी माँ को मार दिया है।’ शावक ने स्वीकार करते हुए कहा।

‘ओह, ख़ैर, जो हुआ सो हुआ। मेरी माँ ने तुम्हारी माँ को मारा था जिसके बदले तुमने मेरी माँ को मार दिया। बात बराबर हो गई। हम दोनों भाई-भाई हैं अत: अब हम सारी बातें भुला कर शिकार खेलने चलते हैं।’ बछड़े ने शावक से कहा।

शावक और बछड़ा शिकार खेलने जंगल में आगे चल दिए। एक स्थान पर उनका शिकारी मनुष्यों से सामना हो गया। शिकारी मनुष्यों ने उन्हें पकड़ने का प्रयास किया। शावक तो भाग कर बच गया किंतु बछड़ा पकड़ा गया। शिकारी मनुष्यों ने बछड़े को मारकर खा लिया। शिकारी मनुष्यों के जाने के बाद शावक बछड़े को ढूँढ़ता हुआ उसी स्थान पर पहुँचा जहाँ शिकारियों ने बछड़े को मारकर खाया था। शावक ने देखा कि वहाँ बछड़े की अस्थियाँ पड़ी हुई थीं। यह देखकर शावक बहुत दुखी हुआ। उसे लगा कि बछड़े के मारे जाने के बाद अब इस दुनिया में उसका अपना कोई नहीं बचा है। शावक दुखी हो गया। उसने बछड़े की अस्थियाँ एकत्र कीं और लकड़ियों तथा पत्तों से आग जलाकर उसमें अस्थियाँ डाल दीं। इसके बाद वह स्वयं भी उस आग में कूद पड़ा। इस प्रकार शावक ने बछड़े के मारे जाने के दुख में अपनी जान दे दी।

जिस स्थान पर शावक ने आत्मदाह किया था उस स्थान पर बाँस के पेड़ उग आए। पेड़ अच्छे हरे-भरे हो गए। एक दिन एक बूढ़ा-बुढ़िया बाँस के पेड़ों की खोज करते हुए वहाँ पहुँचे। उन्हें टोकरी बनाने के लिए बाँसों की आवश्यकता थी। बूढ़े ने बाँसों को देखा तो बहुत ख़ुश हुआ। वे बाँस ठीक वैसे थे जैसे उसे चाहिए थे। बूढ़े ने कुल्हाड़ी उठाई और बाँस के पेड़ों पर प्रहार किया।

‘ठीक से काटो, नहीं तो मैं तुम्हें खा जाऊँगा।’ बाँस के पेड़ से आवाज़ आई।

बूढ़ा चौंका। वह ठिठक गया। फिर उसे लगा कि यह उसका भ्रम था। उसने फिर कुल्हाड़ी चलाई।

‘ठीक से काटो वरना मैं तुम्हें सींग मार दूँगा।’ बाँस के पेड़ से आवाज़ आई।

अब बूढ़ा डर गया। उसने पेड़ काटना बंद कर दिया और आँखें फाड़-फाड़ कर बाँस के पेड़ों की ओर देखने लगा।

‘तुम बाँस क्यों नहीं काट रहे हो? यदि तुम बाँस नहीं काटोगे तो हम टोकरियाँ किससे बनाएँगे?’ बुढ़िया ने बूढ़े से कहा।

‘ये बाँस बोलते हैं। मैं इन्हें नहीं काटूँगा।’ बूढ़े ने बुढ़िया से कहा।

‘तुम नहीं काटोगे तो मुझे काटने पड़ेंगे।’ बुढ़िया ने कहा।

बुढ़िया की बात सुनकर बूढ़े ने साहस बटोरा और बाँस काट लिए। इस बार बाँसों से कोई आवाज़ नहीं आई। बूढ़े ने बाँसों का गट्ठा बनाया और अपने सिर पर लादकर घर लौट पड़ा। घर पहुँचकर बुढ़िया ने बूढ़े से कहा कि अब इन बाँसों को फाड़ दो ताकि मैं टोकरी बना सकूँ। बूढ़े ने जैसे ही बाँसों को फाड़ा वैसे ही शावक और बछड़ा जो कि अदृश्य रूप में बाँसों में रह रहे थे, बाँसों से निकल कर बूढ़े की झोपड़ी में छिप गए। वे दोनों बूढ़े की झोपड़ी में रहने लगे। वे प्रतिदिन नदी में नहाने जाते। नदी में नहाते समय प्रतिदिन उनका एक बाल नदी में बह जाया करता। उसी नदी में कुछ दूर पर एक लड़की नहाने आया करती थी। उस लड़की का कोई भाई नहीं था। वह नदी से प्रार्थना किया करती थी कि उसे एक भाई मिल जाए।

एक दिन शावक और बछड़े ने सोचा कि चल कर देखा जाए कि उनके बाल बह कर कहाँ पहुँचते हैं? उसी समय लड़की शावक और बछड़े के बालों को अपनी हथेली पर रखकर नदी से प्रार्थना कर रही थी कि इतने सुनहरे और स्वस्थ बालों वाले लड़कों को मेरा भाई बना दो। शावक और बछड़े ने लड़की की बात सुनी। वे अदृश्य रूप में थे अत: लड़की को नहीं दिखे।

‘तुम इन बालों को लेकर बूढ़ा-बुढ़िया के पास जाओ जो फर्लांग भर आगे इसी नदी के किनारे रहते हैं। ये बाल बुढ़िया को दे देना और उससे टोकरी में रखे दो फूल ले लेना।’ शावक ने लड़की से कहा।

शावक तो दिखाई दिया नहीं अत: लकड़ी ने समझा कि यह बड़ेदेव ने उससे कहा है। लड़की बड़ेदेव की आज्ञा के अनुसार बुढ़िया के पास पहुँची। उसने बुढ़िया से दो फूल माँगे।

‘मेरे पास फूल नहीं हैं।’ बुढ़िया बोली।

‘तुम्हारे पास हैं। तुम अपनी टोकरी में देखो।’ लड़की ने कहा।

बुढ़िया ने टोकरी में देखा। उसमें दो सुंदर फूल रखे दिखे। बुढ़िया ने बालों के बदले फूल लड़की को दे दिए। लड़की फूल लेकर अपने घर चल पड़ी। रास्ते में अचानक दोनों फूल शावक और बछड़े में बदल गए। यह देखकर लड़की डर गई।

‘डरो नहीं, हम तुम्हारे भाई हैं।’ शावक और बछड़े ने लड़की से कहा।

इसके बाद लड़की, शावक और बछड़ा भाई बहन बनकर हिलमिलकर प्रेम से एक साथ रहने लगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 187)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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