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मेहतर का सपना

mehtar ka sapna

रानी का पाख़ाना साफ़ करने वाली मेहतरानी एक दिन बीमार पड़ गई। पर किसी को तो पाख़ाने की सफ़ाई के लिए जाना ही था। सो उसने अपने एवज में अपने पति को राजमहल भेज दिया। पाख़ाने के छेद के नीचे रखी डोलची को बदलने के लिए वह पिछवाड़े के दरवाज़े से भीतर गया। जब वह पाख़ाने के नीचे डोलची बदल रहा था उस समय रानी पाख़ाने में शौच के लिए बैठी हुई थी। मेहतर ने ऊपर देखा तो उसे रानी की जाँघों के बीच के अंग की एक झलक दिखलाई दी। वह अंग रेशम की तरह चिकना, गोरा और चमेली की पंखुरी के समान मुलायम था। एक झलक में ही मेहतर रानी पर फ़िदा हो गया। वह कल्पना करने लगा कि रानी का शेष शरीर कितना सुंदर होगा। वह पैर घसीटता हुआ घर पहुँचा। उसके दिलोदिमाग़ पर रानी की जाँघों के बीच का दो अंगुल का वह अंग छाया हुआ था। रानी पर वह ऐसा मोहित हुआ कि उसकी भूख और नींद हवा हो गई। मेहतरानी ने पति से पूछा कि क्या बात है, वह गुमसुम क्यों है तो उसने झिझकते हुए अपने मन की हालत बता दी। रानी को पाए बिना उसे चैन नहीं मिलेगा।

“हे भगवान! रानी के तो तुम पास भी नहीं फटक सकते। तुम हो क्या, एक नाकुछ भंगी! अगर तुम किसी और को चाहते तो हम कुछ कोशिश भी करते। पर ख़ुद रानी! उसे भूल जाओ! ऐरे-ग़ैरे तो उसकी झलक भी नहीं पा सकते।” जमादारिन ने बहुत कोशिश की, पर वह पति को रानी की जाँघों के सम्मोहन से छुटकारा दिला सकी। उसका मन वहीं-वहीं चक्कर लगाता रहा। रानी के प्रेम में वह पूरी तरह डूब गया।

वह पागलों जैसी हरकतें करने लगा। उसे खाने-पीने का होश था, सोने का और कपड़े बदलने का। आख़िर वह घर से निकल पड़ा और यहाँ-वहाँ डोलने लगा। एक दिन वह रानी की सुंदरता में खोया हुआ किसी पेड़ के नीचे बैठा था कि कुछ ग्रामीण आए और उसे घेरकर बैठ गए। कई दिन वह इस तरह समाधि की अवस्था में अविचल बैठा रहा—न कुछ खाया, सोया और कुछ कहा। ग्रामीणों को लगा कि निश्चित ही वह कोई महान संत है। वे उसकी देखभाल करने लगे। उसके लिए चढ़ावा, खाना और वस्त्र लाने लगे। पर उसने किसी चीज़ की तरफ़ देखा तक नहीं। इस विरक्ति से उनका विश्वास और पक्का हो गया कि वह सिद्धपुरुष है। यहाँ तक कि भक्तों की भीड़ पर भी वह कोई ध्यान नहीं देता था।

एक ही महीने में दूर-दूर तक उसकी ख्याति फैल गई। पर अपनी ख्याति का उसे ध्यान ही नहीं था। पहुँचते-पहुँचते उसकी ख्याति रानी के कानों में पड़ी। दासियों को साथ लेकर वह महान संत के दर्शनों के लिए आई। रानी ने उसे साष्टांग प्रणाम किया, उसके चरण छूए, उसे फल-फूल अर्पित किए और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। पर उसने रानी की ओर देखा तक नहीं। उसे पता नहीं था कि वह कौन है और ही उसने पूछा। इन बातों का उसके लिए कोई मतलब नहीं था।

उसकी कामना इतनी घनीभूत थी कि कोई कामना ही शेष नहीं रही।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 263)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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