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गुरु और मूर्ख

guru aur moorkh

एक अमीर गुरु था। देश भर में उसके सैंकड़ों शिष्य थे। वह बहुत ठाट-बाट से रहता था। देश भर में बिखरे अपने भक्तों के पास वह पालकी में बैठकर जाता और उनसे चढ़ावा, भेंट और चंदा स्वीकार करता था। एक-एक कर सबके पास जाने में उसे बारह बरस लग जाते थे।

ऐसे ही एक बार वह अपने दौरे पर जा रहा था कि हाव-भाव से मूर्ख दिखते एक आदमी ने उसे रोक लिया। वह रास्ते के बीचों-बीच खड़ा हो गया और तब तक हटने से इनकार कर दिया जब तक गुरु उससे बात नहीं कर लेता। गुरु को देर हो रही थी, पर उसने बात करना स्वीकार कर लिया। उसने चिढ़कर पूछा, “तुम्हें क्या चाहिए?”

उस आदमी ने कहा, “मैं स्वर्ग जाना चाहता हूँ। लोग कहते हैं कि आप गुरु हैं और स्वर्ग जाने का रास्ता जानते हैं।”

गुरु हँसा, “तुम स्वर्ग जाना चाहते हो? इसमें क्या कठिनाई है! जाओ, आकाश की तरफ़ हाथ करके वहाँ खड़े हो जाओ! तुम स्वर्ग पहुँच जाओगे।” उस आदमी ने कहा, “बस, इतना ही?” इससे पहले कि वह कुछ और पूछ पाता गुरु ने कहारों को चलने का आदेश दिया। पालकी आगे बढ़ गई।

बारह बरस बाद गुरु का उसी रास्ते से फिर आना हुआ। बस्ती के बाहर उसने एक आदमी को खड़े देखा। वह आकाश की ओर देख रहा था और उसके हाथ स्वर्ग की ओर उठे हुए थे। दाढ़ी और सर के बाल सफ़ेद। गंदे लंबे नाख़ून झीर-झीर कपड़े। लगता था जैसे उसे अपने शरीर तक का कोई होश नहीं है। उसकी दृष्टि आकाश पर जमी हुई थी।

जैसे ही गुरु उसकी ओर बढ़ा उसने अनहोनी को घटित होते देखा। उसने देखा कि मूर्ख आदमी धीरे-धीरे स्वर्ग की ओर ऊपर उठ रहा है। तत्काल गुरु के दिमाग़ में कौंधा कि उसे क्या करना चाहिए। बिना एक क्षण गँवाए वह पालकी से कूदा और लपककर मूर्ख के पाँव पकड़ लिए और उसके साथ वह भी स्वर्ग चला गया। स्वर्ग जाने का यही रास्ता वह जानता था जिसका बोध उसे अभी-अभी हुआ था।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 289)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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