एक लड़का था जिसका नाम था कोइला। वह अपनी बूढ़ी माँ के साथ रहता था। कोइला गाय-भैंस चराकर अपना और अपनी माँ का पेट पालता। कोइला बहुत हँसमुख और मिलनसार था। वह हर किसी की भी सहायता करने को तत्पर रहता। गाँव वाले उसे बहुत पसंद करते थे।
भोर होते ही कोइला गाँव भर से गाय-भैंस इकट्ठी करता और उन्हें लेकर जंगल की ओर निकल पड़ता। गाय-भैंस जंगल में घूमतीं चरतीं और कोइला एक चट्टान पर बैठकर उन पर दृष्टि रखता।कोइला की माँ कोइला के लिए दो रोटियाँ एक कपड़े में बाँधकर दे दिया करती। कोइला को जब ज़ोर की भूख लगती तो वह दोनों रोटियाँ खाकर अपना पेट भर लिया करता।
एक दिन कोइला पशु चरा रहा था कि उसे ज़ोर की भूख लगी। कोइला ने पोटली खोली और रोटियाँ निकालकर बैठ गया। उसी समय उसने देखा कि उसकी दो भैंसे आपस में लड़ती हुई दूर भागी जा रही हैं। कोइला रोटी वहीं छोड़कर उनके पीछे भागा। थोड़ी देर बाद वह दोनों भैंसों को शांत करके वापस ले आया। तब तक गाँव लौटने का समय भी हो गया था। कोइला ने पशुओं को इकट्ठा किया और उन्हें हाँकता हुआ गाँव की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसे याद आया कि इस हड़बड़ी में वह रोटियाँ खाना तो भूल ही गया और रोटियाँ चट्टान पर छूट गई हैं। उसने सोचा कि अब अगर वह रोटियाँ लेने जाएगा तो ये गाय-भैंसे इधर-उधर भाग जाएँगी, इससे तो अच्छा है कि जब कल पशुओं को लेकर आएगा तब आज की रोटियाँ भी खा लेगा। यह विचार करता हुआ कोइला अपने गाँव लौट गया।
दूसरे दिन कोइला पशुओं को लेकर जंगल में उसी जगह पहुँचा जहाँ वह रोटियाँ भूल आया था। कोइला ने रोटियों की ख़ोज में चट्टान पर दृष्टि डाली तो वह यह देखकर अवाक रह गया कि चट्टान की दरार से एक पेड़ उग आया है और उस पेड़ पर रोटियाँ फली हुई हैं। उसने डरते-डरते एक रोटी तोड़ी और उसे खाकर देखा। रोटी का स्वाद बहुत अच्छा था। बिलकुल ऐसा जैसे अभी किसी ने ताज़ा-ताज़ा सेंक कर परोसी हो। कोइला उस पेड़ को देखकर बहुत ख़ुश हुआ। उसकी माँ जो उसके लिए दो रोटियाँ बाँध दिया करती थी, उनमें उसका पेट नहीं भरता था। अब उसे रोटियों की कोई कमी नहीं थी। उस दिन के बाद से कोइला ने घर से रोटियाँ लानी बंद कर दीं। इधर कोइला को पेड़ पर से ढेर सारी रोटियाँ मिल जातीं और उधर उसकी बूढ़ी माँ को भी दो के बदले चार रोटियों मिल जातीं। दो माँ के हिस्से की और दो कोइला के हिस्से की। माँ का पेट भी मज़े से भर जाता।
कोइला प्राय: उस पेड़ पर चढ़कर बैठ जाया करता। पेड़ पर चढ़कर बैठने से दो लाभ थे—एक तो ऊँचाई से वह अपने पशुओं पर भली-भाँति नज़र रख पाता और दूसरा कि उसे जब भूख लगती, वह रोटी तोड़ता और खा लेता।
एक दिन कोइला पेड़ पर चढ़कर रोटी खा रहा था कि तभी एक राक्षसी उधर से निकली। उसने कोइला को देखा तो उसके मुँह में पानी आ गया। वह आदमख़ोर राक्षसी खाने के लिए मनुष्य की खोज में भटक ही रही थी। कोइला को देखते ही ऐसे ख़ुश हुई जैसे उसे मनचाही मुराद मिल गई हो। राक्षसी ने कोइला को पकड़ने के लिए एक लाचार, बूढ़ी औरत का वेश धारण किया और पेड़ के नीचे जा खड़ी हुई।
‘बेटा! मैं बहुत भूखी हूँ। मैंने कई दिन से अन्न का एक दाना भी नहीं चखा है। दया करके मुझे भी दो रोटियाँ दे दो।’ राक्षसी ने कोइला से कहा।
‘ठीक है अम्मा, मैं रोटियाँ तोड़कर नीचे फेंकता हूँ, तुम उन्हें उठा लेना।’ कोइला ने कहा।
‘यह ठीक नहीं है। जो तुम रोटियाँ नीचे फेंक कर दोगे तो वे धूल में सन जाएँगी। इसलिए तुम नीचे उतर कर मुझे रोटियाँ दो।’ राक्षसी ने कहा। वह चाहती थी कि कोइला पेड़ से नीचे उतरे तो वह उसे पकड़ ले किंतु कोइला पेड़ से उतरना नहीं चाह रहा था।
‘अम्मा, ऐसा करो कि तुम अपना आँचल फैलाओ, मैं उसमें रोटियाँ गिरा देता हूँ।’ कोइला ने दूसरी युक्ति बताई।
‘अरे बेटा, मेरी आँखों की रोशनी तेज़ नहीं है। मुझे धुँधला दिखाई देता है। भला मैं अपने आँचल में रोटियाँ कैसे समेट पाऊँगी। तुम ऐसा करो कि पेड़ से नीचे आकर मुझे रोटियाँ दे दो।’ राक्षसी ने लाचारी का अभिनय करते हुए कहा।
कोइला राक्षसी की बातों में आ गया। उसने पेड़ से दो रोटियाँ तोड़ीं और पेड़ से नीचे उतर आया। वह जैसे ही राक्षसी को रोटियाँ देने आगे बढ़ा कि राक्षसी ने उसकी बाँह पकड़कर उसे अपने झोले में डाल लिया और झोले का मुँह बाँध दिया। कोइला समझ गया कि वह किसी राक्षसी के जाल में फँस गया है। लेकिन वह कर भी क्या सकता था?
राक्षसी कोइला को झोले में बंद करके अपनी गुफ़ा की ओर चल पड़ी। गुफ़ा वह अपनी बेटी के साथ रहती थी। राक्षसी ख़ुश थी कि आज उसे अच्छा शिकार मिला है। अब माँ-बेटी मिलकर इस लड़के को खाएँगी। राक्षसी को चलते-चलते प्यास लग आई। कुछ दूर पर उसे एक जल-कुंड दिखाई पड़ा। राक्षसी जल-कुंड के पास पहुँची। उसने झोले को वहीं ज़मीन पर रख दिया और स्वयं पानी पीने कुंड में उतर गई।
भाग्यवश उसी समय उधर कुछ बंजारे आ निकले। कोइला ने बंजारों की आहट सुनी तो वह सहायता के लिए पुकारने लगा। बंजारों ने देखा कि ज़मीन पर एक बंद झोला पड़ा हुआ है जो हिलडुल रहा है और उसमें से सहायता की पुकार निकल रही है। कौतूहलवश बंजारे झोले के पास पहुँचे। उन्होंने झोले का मुँह खोलकर कोइल को बाहर निकाला। कोइला ने उन्हें आपबीती सुनाई। बंजारों और कोइला ने मिलकर झोले में पत्थर के टुकड़े भर दिए। इसके बाद बंजारे अपने रास्ते चले गए और कोइला अपने पशुओं की ओर भागा। उसने अपने पशुओं को इकट्ठा किया और अपने घर की ओर चल पड़ा।
इधर राक्षसी जल-कुंड से ढेर सारा पानी पीकर बाहर आई तो उसने देखा कि उसका झोला यथास्थान रखा हुआ था। उसने झोले को उठाया और अपनी गुफ़ा की ओर चल पड़ी। गुफ़ा में पहुँचकर राक्षसी ने अपनी बेटी को पुकारा।
‘बेटी, देख तो आज मैं क्या लाई हूँ!’
‘क्या लाई हो, माँ?' राक्षसी की बेटी ने पूछा।
‘तुम स्वयं देख लो।’ कहती हुई राक्षसी ने झोला अपनी बेटी के सामने रख दिया।
राक्षसी की बेटी ने झोले का मुँह खोला और झोले में झाँककर देखा तो आगबबूला हो उठी।
‘ये क्या है माँ? यहाँ तो भूख के मारे मेरी जान निकल रही है और तुम्हें ठिठोली सूझ रही है। अब ये पत्थर तुम्हीं खाओ। लगता है मानुष पकड़ना अब तुम्हारे बस की बात नहीं रही।’ राक्षसी की बेटी ने अपनी माँ को बुरा-भला कहना शुरू कर दिया।
राक्षसी ने भी देखा कि उसके झोले में लड़के की जगह पत्थर भरे हुए हैं। वह समझ गई कि लड़का उसे चकमा दे गया है। उसने मन ही मन निश्चय किया कि अब चाहे जो भी हो जाए मगर वह कोइला को पकड़कर रहेगी।
दूसरे दिन कोइला अपने पशुओं को लेकर फिर उसी जगह पहुँचा। उसने पशुओं को चरने के लिए छोड़ा और स्वयं रोटियों के पेड़ पर चढ़कर बैठ गया।
राक्षसी भी वहाँ आ पहुँची। आज राक्षसी ने एक युवा औरत का वेश धारण किया और गोद में एक छोटा बच्चा रख लिया। पेड़ के नीचे पहुँचकर उसने बच्चे को चिकोटी काट दी। बच्चा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
‘क्यों भौजी, ये बच्चा क्यों रो रहा है?’ कोइला ने राक्षसी से पूछा।
‘क्या बताऊँ भैया, मेरा बच्चा बहुत भूखा है। यह भूख के मारे रो रहा है।’ राक्षसी बोली।
‘ओह, मगर भौजी, ये तो बताओ कि तुम इस घने जंगल में क्या कर रही हो?’ कोइला ने पूछा।
‘मैं अपने मायके जा रही थी कि रास्ता भटक कर इधर आ निकली हूँ।’ राक्षसी बोली।
‘ठीक है, मैं तुम्हें रास्ता बताता हूँ। तुम यहाँ से सीधे जाना और जहाँ तुम्हें एक बहुत ऊँचा पेड़ मिले वहाँ से दाएँ मुड़ जाना। तुम गाँव पहुँच जाओगी।’ कोइला ने राक्षसी को रास्ता बताते हुए कहा।
‘धन्यवाद भैया! तुम बड़े भले इंसान हो। लेकिन गाँव यहाँ से दूर है और मेरा बच्चा बहुत भूखा है। यदि तुम मुझे गाय का थोड़ा-सा दूध दे दो तो मेरे बच्चे का पेट भर जाएगा।’ राक्षसी ने कहा।
‘ठीक है, ये लो दोना। इसमें गाय का दूध दुह लो और अपने बच्चे को पिला दो।’ कोइला ने पेड़ के पत्ते से दोना बनाकर नीचे फेंकते हुए कहा।
‘मुझसे गाय दुहते नहीं बनता है, तुम पेड़ से उतरने का कष्ट करो और मेरे बच्चे के लिए दूध दुह दो। मैं तुम्हारा उपकार जीवन भर नहीं भूलुँगी।’ राक्षसी ममतामयी माँ का अभिनय करती हुई बोली।
कोइला को पेड़ से उतरना ही पड़ा। वह पेड़ से उतरकर जैसे ही गाय की ओर बढ़ा वैसे ही राक्षसी ने उसे पकड़ा और एक बोरे में बंद करके अपनी गुफ़ा की ओर चल दी। कोइला भी समझ गया कि आज फिर वह राक्षसी के जाल में फँस गया है। मगर वह घबराया नहीं और शांत बना रहा।
आज राक्षसी पानी पीने को नहीं रुकी। वह हाँफती हुई सीधे अपनी गुफ़ा में पहुँची।
‘देख बेटी, आज मैं क्या लाई हूँ।’ राक्षसी ने अपनी बेटी के आगे झोला रखते हुए कहा।
‘क्या लाई हो, वही कंकड़-पत्थर?’ लड़की ने मुँह बनाते हुए कहा।
‘तुम देखो तो सही और सुनो, मैं हाथ-मुँह धोने जा रही हूँ तब तक तुम काट-कूट कर पका डालना।’ यह कहकर राक्षसी हाथ-मुँह धोने चली गई।
राक्षसी की बेटी ने झोले से कोइला को बाहर निकाला।
‘तो तुम्हीं हो जो कल मेरी माँ को झाँसा देकर भाग गए थे। अब आज मैं तुम्हें पकाऊँगी।’ राक्षसी की बेटी कोइला को देखकर बहुत ख़ुश हुई।
‘वो तो सब ठीक है लेकिन ये तो बताओ कि तुम मुझे पकाओगी कैसे? मेरा शरीर तो तुम्हारी हाँडी से बहुत बड़ा है।’ कोइला ने पूछा।
‘तुम चिंता मत करो। मैं पहले तुम्हें ओखली में डाल कर कूटूँगी और फिर हाँडी में पकाऊँगी।' राक्षसी की बेटी ने कहा। यह सुनकर कोइला के शरीर में भय के मारे झुरझुरी दौड़ गई।
‘फिर तो ठीक रहेगा। मगर ये बताओ कि इतनी छोटी-सी ओखली में तुम मुझे कूटोगी कैसे? मेरा शरीर तो इसमें समाएगा ही नहीं।’ कोइला ने पूछा।
‘तुम चिंता मत करो। मैं पहले तुम्हारा सिर ओखली में डाल कर कूटूँगी, फिर हाथ-पैर और फिर बाक़ी धड़ उसमें डाल दूँगी।’ राक्षसी की बेटी ने बताया।
‘यदि ऐसा है तो ठीक है लेकिन मुझे लग रहा है कि तुम झूठ बोल रही हो। इतनी-सी ओखली में मेरा सिर घुसेगा ही नहीं।’ कोइला ने शंका प्रकट की।
‘घुस जाएगा।’ राक्षसी की बेटी ने कहा।
‘नहीं घुसेगा।’ कोइला ने दृढ़ स्वर में कहा।
कोइला की बात सुनकर राक्षसी की बेटी को बड़ा ताव आया।
‘देखो, मैं दिखाती हूँ कि ओखली में सिर कैसे घुसेगा।’ यह कहते हुए राक्षसी की बेटी ने अपना सिर ओखली में घुसा दिया। कोइला यही तो चाहता था। उसने एक पल भी गँवाए बिना मूसल उठाया और ओखली में पटक दिया। राक्षसी की बेटी का सिर कुचल गया और वह मर गई। अब कोइला ने राक्षसी की बेटी के टुकड़े-टुकड़े किए और हाँडी में पका दिया। इतने में राक्षसी हाथ-मुँह धोकर लौट आई। कोइला वहीं छिप गया।
राक्षसी ने हाँडी को देखा और समझा कि उसकी बेटी ने कोइला को पका दिया है। उसने अपनी बेटी को पुकारा। कोई उत्तर न मिलने पर राक्षसी ने सोचा कि शायद बेटी भी हाथ-मुँह धोने चली गई होगी। राक्षसी ने रहा नहीं गया और उसने हाँडी से पका हुआ मांस निकाला और खा डाला। खा-पी कर राक्षसी को नींद आने लगी। वह वहीं लेट गई और थोड़ी देर में उसके खर्राटों से गुफ़ा गूँजने लगी।
उचित अवसर देखकर कोइला बाहर निकला और उसने मूसल उठाकर राक्षसी के सिर पर दे मारा। राक्षसी वहीं मर गई। इसके बाद कोइला ने राक्षसी की गुफ़ा से वह सारा धन उठा लिया जो राक्षसी ने राहगीरों को मार-मारकर इकट्ठा किया था।
धन लेकर कोइला अपने पशुओं के पास पहुँचा। पशुओं को इकट्ठा करके अपने घर की ओर चल पड़ा। उस दिन के बाद से कोइला और उसकी माँ सुख से जीवन-यापन करने लगे।
ek laDka tha jiska naam tha koila. wo apni buDhi maan ke saath rahta tha. koila gaay bhains charakar apna aur apni maan ka pet palta. koila bahut hansmukh aur milansar tha. wo har kisi ki bhi sahayata karne ko tatpar rahta. gaanv vale use bahut pasand karte the.
bhor hote hi koila gaanv bhar se gaay bhains ikatthi karta aur unhen lekar jangal ki or nikal paDta. gaay bhains jangal mein ghumtinchartin aur koila ek chattan par baithkar un par drishti rakhta. koila ki maan koila ke liye do rotiyan ek kapDe mein baandh kar de diya karti. koila ko jab zor ki bhookh lagti to wo donon rotiyan khakar apna pet bhar liya karta.
ek din koila pashu chara raha tha ki use zor ki bhookh lagi. koila ne potli kholi aur rotiyan nikal kar baith gaya. usi samay usne dekha ki uski do bhainse aapas mein laDti hui door bhagi ja rahi hain. koila roti vahin chhoD kar unke pichhe bhaga. thoDi der baad wo donon bhainson ko shaant karke vapas le aaya. tab tak gaanv lautne ka samay bhi ho gaya tha. koila ne pashuon ko ikattha kiya aur unhen hankata hua gaanv ki or chal paDa. raste mein use yaad aaya ki is haDbaDi mein wo rotiyan khana to bhool hi gaya aur rotiyan chattan par chhoot gai hain. usne socha ki ab agar wo rotiyan lene jayega to ye gaay bhainse idhar udhar bhaag jayengi, isse to achchha hai ki jab kal pashuon ko lekar ayega tab aaj ki rotiyan bhi kha lega. ye vichar karta hua koila apne gaanv laut gaya.
dusre din koila pashuon ko lekar jangal mein usi jagah pahuncha jahan wo rotiyan bhool aaya tha. koila ne rotiyon ki khoj mein chattan par drishti Dali to wo ye dekhkar avak rah gaya ki chattan ki darar se ek peD ug aaya hai aur us peD par rotiyan phali hui hain. usne Darte Darte ek roti toDi aur use khakar dekha. roti ka svaad bahut achchha tha. bilkul aisa jaise abhi kisi ne taza taza senk kar parosi ho. koila us peD ko dekhkar bahut khush hua. uski maan jo uske liye do rotiyan baandh diya karti thi, unmen uska pet nahin bharta tha. ab use rotiyon ki koi kami nahin thi. us din ke baad se koila ne ghar se rotiyan lani band kar deen. idhar koila ko peD par se Dher sari rotiyan mil jatin aur udhar uski buDhi maan ko bhi do ke badle chaar rotiyon mil jatin. do maan ke hisse ki aur do koila ke hisse ki. maan ka pet bhi maze se bhar jata.
koila prayah us peD par chaDhkar baith jaya karta. peD par chaDhkar baithne se do laabh the—ek to uunchai se wo apne pashuon par bhali bhanti nazar rakh pata aur dusra ki use jab bhookh lagti, wo roti toDta aur kha leta.
ek din koila peD par chaDhkar roti kha raha tha ki tabhi ek rakshsi udhar se nikli. usne koila ko dekha to uske munh mein pani aa gaya. wo adamkhor rakshsi khane ke liye manushya ki khoj mein bhatak hi rahi thi. koila ko dekhte hi aise khush hui jaise use manchahi murad mil gai ho. rakshsi ne koila ko pakaDne ke liye ek lachar, buDhi aurat ka vesh dharan kiya aur peD ke niche ja khaDi hui.
‘beta! main bahut bhukhi hoon. mainne kai din se ann ka ek dana bhi nahin chakha hai. daya karke mujhe bhi do rotiyan de do. ’ rakshsi ne koila se kaha.
‘theek hai amma, main rotiyan toD kar niche phenkta hoon, tum unhen utha lena. ’ koila ne kaha.
‘yah theek nahin hai. jo tum rotiyan niche phenk kar doge to ve dhool mein san jayengi. isliye tum niche utar kar mujhe rotiyan do. ’ rakshsi ne kaha. wo chahti thi ki koila peD se niche utre to wo use pakaD le kintu koila peD se utarna nahin chaah raha tha.
‘amma, aisa karo ki tum apna anchal phailao, main usmen rotiyan gira deta hoon. ’ koila ne dusri yukti batai.
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koila rakshsi ki baton mein aa gaya. usne peD se do rotiyan toDin aur peD se niche utar aaya. wo jaise hi rakshsi ko rotiyan dene aage baDha ki rakshsi ne uski baanh pakaD kar use apne jhole mein Daal liya aur jhole ka munh baandh diya. koila samajh gaya ki wo kisi rakshsi ke jaal mein phans gaya hai. lekin wo kar bhi kya sakta tha?
rakshsi koila ko jhole mein band karke apni gufa ki or chal paDi. gufa wo apni beti ke saath rahti thi. rakshsi khush thi ki aaj use achchha shikar mila hai. ab maan beti milkar is laDke ko khayengi. rakshsi ko chalte chalte pyaas lag aai. kuch door par use ek jal kunD dikhai paDa. rakshsi jal kunD ke paas pahunchi. usne jhole ko vahin zamin par rakh diya aur svayan pani pine kunD mein utar gai.
bhagyvash usi samay udhar kuch banjare aa nikle. koila ne banjaron ki aahat suni to wo sahayata ke liye pukarne laga. banjaron ne dekha ki zamin par ek band jhola paDa hua hai jo hilDul raha hai aur usmen se sahayata ki pukar nikal rahi hai. kautuhalvash banjare jhole ke paas pahunche. unhonne jhole ka munh khol kar koil ko bahar nikala. koila ne unhen apabiti sunai. banjaron aur koila ne milkar jhole mein patthar ke tukDe bhar diye. iske baad banjare apne raste chale ge aur koila apne pashuon ki or bhaga. usne apne pashuon ko ikattha kiya aur apne ghar ki or chal paDa.
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‘beti, dekh to aaj main kya lai hoon!’
‘kya lai ho, maan? rakshsi ki beti ne puchha.
‘tum svayan dekh lo. ’ kahti hui rakshsi ne jhola apni beti ke samne rakh diya.
rakshsi ki beti ne jhole ka munh khola aur jhole mein jhankakar dekha to agabbula ho uthi.
‘ye kya hai maan? yahan to bhookh ke mare meri jaan nikal rahi hai aur tumhein thitholi soojh rahi hai. ab ye patthar tumhin khao. lagta hai manush pakaDna ab tumhare bas ki baat nahin rahi. ’ rakshsi ki beti ne apni maan ko bura bhala kahna shuru kar diya.
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rakshsi bhi vahan aa pahunchi. aaj rakshsi ne ek yuva aurat ka vesh dharan kiya aur god mein ek chhota bachcha rakh liya. peD ke niche pahunchakar usne bachche ko chikoti kaat di. bachcha zor zor se rone laga.
‘kyon bhauji, ye bachcha kyon ro raha hai?’ koila ne rakshsi se puchha.
‘kya bataun bhaiya, mera bachcha bahut bhukha hai. ye bhookh ke mare ro raha hai. ’ rakshsi boli.
‘oh, magar bhauji, ye to batao ki tum is ghane jangal mein kya kar rahi ho?’ koila ne puchha.
‘main apne mayke ja rahi thi ki rasta bhatak kar idhar aa nikli hoon. ’ rakshsi boli.
‘theek hai, main tumhein rasta batata hoon. tum yahan se sidhe jana aur jahan tumhein ek bahut uncha peD mile vahan se dayen muD jana. tum gaanv pahuch jaogi. ’ koila ne rakshsi ko rasta batate hue kaha.
‘dhanyavad bhaiya! tum baDe bhale insaan ho. lekin gaanv yahan se door hai aur mera bachcha bahut bhukha hai. yadi tum mujhe gaay ka thoDa sa doodh de do to mere bachche ka pet bhar jayega. ’ rakshsi ne kaha.
‘theek hai, ye lo dona. ismen gaay ka doodh duh lo aur apne bachche ko pila do. ’ koila ne peD ke patte se dona banakar niche phenkte hue kaha.
‘mujhse gaay duhte nahin banta hai, tum peD se utarne ka kasht karo aur mere bachche ke liye doodh duh do. main tumhara upkaar jivan bhar nahin bhulungi. ’ rakshsi mamtamyi maan ka abhinay karti hui boli.
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aaj rakshsi pani pine ko nahin ruki. wo hanphati hui sidhe apni gufa mein pahunchi.
‘dekh beti, aaj main kya lai hoon. ’ rakshsi ne apni beti ke aage jhola rakhte hue kaha.
‘kya lai ho, vahi kankaD patthar?’ laDki ne munh banate hue kaha.
‘tum dekho to sahi aur suno, main haath munhah dhone ja rahi hoon tab tak tum kaat koot kar paka Dalna. ’ ye kahkar rakshsi haath munh dhone chali gai.
rakshsi ki beti ne jhole se koila ko bahar nikala.
‘to tumhin ho jo kal meri maan ko jhansa dekar bhaag ge the. ab aaj main tumhein pakaungi. ’ rakshsi ki beti koila ko dekhkar bahut khush hui.
‘vo to sab theek hai lekin ye to batao ki tum mujhe pakaogi kaise? mera sharir to tumhari hanDi se bahut baDa hai. ’ koila ne puchha.
‘tum chinta mat karo. main pahle tumhein okhli mein Daal kar kutungi aur phir hanDi mein pakaungi. rakshsi ki beti ne kaha. ye sunkar koila ke sharir mein bhay ke mare jhurjhuri dauD gai.
‘phir to theek rahega. magar ye batao ki itni chhoti si okhli mein tum mujhe kutogi kaise? mera sharir to ismen samayega hi nahin. ’ koila ne puchha.
‘tum chinta mat karo. main pahle tumhara sir okhli mein Daal kar kutungi, phir haath pair aur phir baqi dhaD usmen Daal dungi. ’ rakshsi ki beti ne bataya.
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‘ghus jayega. ’ rakshsi ki beti ne kaha.
‘nahin ghusega. ’ koila ne driDh svar mein kaha.
koila ki baat sunkar rakshsi ki beti ko baDa taav aaya.
‘dekho, main dikhati hoon ki okhli mein sir kaise ghusega. ’ ye kahte hue rakshsi ki beti ne apna sir okhli mein ghusa diya. koila yahi to chahta tha. usne ek pal bhi ganvaye bina musal uthaya aur okhli mein patak diya. rakshsi ki beti ka sir kuchal gaya aur wo mar gai. ab koila ne rakshsi ki beti ke tukDe tukDe kiye aur hanDi mein paka diya. itne mein rakshsi haath munh dhokar laut aai. koila vahin chhip gaya.
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bhor hote hi koila gaanv bhar se gaay bhains ikatthi karta aur unhen lekar jangal ki or nikal paDta. gaay bhains jangal mein ghumtinchartin aur koila ek chattan par baithkar un par drishti rakhta. koila ki maan koila ke liye do rotiyan ek kapDe mein baandh kar de diya karti. koila ko jab zor ki bhookh lagti to wo donon rotiyan khakar apna pet bhar liya karta.
ek din koila pashu chara raha tha ki use zor ki bhookh lagi. koila ne potli kholi aur rotiyan nikal kar baith gaya. usi samay usne dekha ki uski do bhainse aapas mein laDti hui door bhagi ja rahi hain. koila roti vahin chhoD kar unke pichhe bhaga. thoDi der baad wo donon bhainson ko shaant karke vapas le aaya. tab tak gaanv lautne ka samay bhi ho gaya tha. koila ne pashuon ko ikattha kiya aur unhen hankata hua gaanv ki or chal paDa. raste mein use yaad aaya ki is haDbaDi mein wo rotiyan khana to bhool hi gaya aur rotiyan chattan par chhoot gai hain. usne socha ki ab agar wo rotiyan lene jayega to ye gaay bhainse idhar udhar bhaag jayengi, isse to achchha hai ki jab kal pashuon ko lekar ayega tab aaj ki rotiyan bhi kha lega. ye vichar karta hua koila apne gaanv laut gaya.
dusre din koila pashuon ko lekar jangal mein usi jagah pahuncha jahan wo rotiyan bhool aaya tha. koila ne rotiyon ki khoj mein chattan par drishti Dali to wo ye dekhkar avak rah gaya ki chattan ki darar se ek peD ug aaya hai aur us peD par rotiyan phali hui hain. usne Darte Darte ek roti toDi aur use khakar dekha. roti ka svaad bahut achchha tha. bilkul aisa jaise abhi kisi ne taza taza senk kar parosi ho. koila us peD ko dekhkar bahut khush hua. uski maan jo uske liye do rotiyan baandh diya karti thi, unmen uska pet nahin bharta tha. ab use rotiyon ki koi kami nahin thi. us din ke baad se koila ne ghar se rotiyan lani band kar deen. idhar koila ko peD par se Dher sari rotiyan mil jatin aur udhar uski buDhi maan ko bhi do ke badle chaar rotiyon mil jatin. do maan ke hisse ki aur do koila ke hisse ki. maan ka pet bhi maze se bhar jata.
koila prayah us peD par chaDhkar baith jaya karta. peD par chaDhkar baithne se do laabh the—ek to uunchai se wo apne pashuon par bhali bhanti nazar rakh pata aur dusra ki use jab bhookh lagti, wo roti toDta aur kha leta.
ek din koila peD par chaDhkar roti kha raha tha ki tabhi ek rakshsi udhar se nikli. usne koila ko dekha to uske munh mein pani aa gaya. wo adamkhor rakshsi khane ke liye manushya ki khoj mein bhatak hi rahi thi. koila ko dekhte hi aise khush hui jaise use manchahi murad mil gai ho. rakshsi ne koila ko pakaDne ke liye ek lachar, buDhi aurat ka vesh dharan kiya aur peD ke niche ja khaDi hui.
‘beta! main bahut bhukhi hoon. mainne kai din se ann ka ek dana bhi nahin chakha hai. daya karke mujhe bhi do rotiyan de do. ’ rakshsi ne koila se kaha.
‘theek hai amma, main rotiyan toD kar niche phenkta hoon, tum unhen utha lena. ’ koila ne kaha.
‘yah theek nahin hai. jo tum rotiyan niche phenk kar doge to ve dhool mein san jayengi. isliye tum niche utar kar mujhe rotiyan do. ’ rakshsi ne kaha. wo chahti thi ki koila peD se niche utre to wo use pakaD le kintu koila peD se utarna nahin chaah raha tha.
‘amma, aisa karo ki tum apna anchal phailao, main usmen rotiyan gira deta hoon. ’ koila ne dusri yukti batai.
‘are beta, meri ankhon ki roshni tez nahin hai. mujhe dhundhla dikhai deta hai. bhala main apne anchal mein rotiyan kaise samet paungi. tum aisa karo ki peD se niche aa kar mujhe rotiyan de do. ’ rakshsi ne lachari ka abhinay karte hue kaha.
koila rakshsi ki baton mein aa gaya. usne peD se do rotiyan toDin aur peD se niche utar aaya. wo jaise hi rakshsi ko rotiyan dene aage baDha ki rakshsi ne uski baanh pakaD kar use apne jhole mein Daal liya aur jhole ka munh baandh diya. koila samajh gaya ki wo kisi rakshsi ke jaal mein phans gaya hai. lekin wo kar bhi kya sakta tha?
rakshsi koila ko jhole mein band karke apni gufa ki or chal paDi. gufa wo apni beti ke saath rahti thi. rakshsi khush thi ki aaj use achchha shikar mila hai. ab maan beti milkar is laDke ko khayengi. rakshsi ko chalte chalte pyaas lag aai. kuch door par use ek jal kunD dikhai paDa. rakshsi jal kunD ke paas pahunchi. usne jhole ko vahin zamin par rakh diya aur svayan pani pine kunD mein utar gai.
bhagyvash usi samay udhar kuch banjare aa nikle. koila ne banjaron ki aahat suni to wo sahayata ke liye pukarne laga. banjaron ne dekha ki zamin par ek band jhola paDa hua hai jo hilDul raha hai aur usmen se sahayata ki pukar nikal rahi hai. kautuhalvash banjare jhole ke paas pahunche. unhonne jhole ka munh khol kar koil ko bahar nikala. koila ne unhen apabiti sunai. banjaron aur koila ne milkar jhole mein patthar ke tukDe bhar diye. iske baad banjare apne raste chale ge aur koila apne pashuon ki or bhaga. usne apne pashuon ko ikattha kiya aur apne ghar ki or chal paDa.
idhar rakshsi jal kunD se Dher sara pani pikar bahar aai to usne dekha ki uska jhola yathasthan rakha hua tha. usne jhole ko uthaya aur apni gufa ki or chal paDi. gufa mein pahunchakar rakshsi ne apni beti ko pukara.
‘beti, dekh to aaj main kya lai hoon!’
‘kya lai ho, maan? rakshsi ki beti ne puchha.
‘tum svayan dekh lo. ’ kahti hui rakshsi ne jhola apni beti ke samne rakh diya.
rakshsi ki beti ne jhole ka munh khola aur jhole mein jhankakar dekha to agabbula ho uthi.
‘ye kya hai maan? yahan to bhookh ke mare meri jaan nikal rahi hai aur tumhein thitholi soojh rahi hai. ab ye patthar tumhin khao. lagta hai manush pakaDna ab tumhare bas ki baat nahin rahi. ’ rakshsi ki beti ne apni maan ko bura bhala kahna shuru kar diya.
rakshsi ne bhi dekha ki uske jhole mein laDke ki jagah patthar bhare hue hain. wo samajh gai ki laDka use chakma de gaya hai. usne man hi man nishchay kiya ki ab chahe jo bhi ho jaye magar wo koila ko pakaD kar rahegi.
dusre din koila apne pashuon ko lekar phir usi jagah pahuncha. usne pashuon ko charne ke liye chhoDa aur svayan rotiyon ke peD par chaDhkar baith gaya.
rakshsi bhi vahan aa pahunchi. aaj rakshsi ne ek yuva aurat ka vesh dharan kiya aur god mein ek chhota bachcha rakh liya. peD ke niche pahunchakar usne bachche ko chikoti kaat di. bachcha zor zor se rone laga.
‘kyon bhauji, ye bachcha kyon ro raha hai?’ koila ne rakshsi se puchha.
‘kya bataun bhaiya, mera bachcha bahut bhukha hai. ye bhookh ke mare ro raha hai. ’ rakshsi boli.
‘oh, magar bhauji, ye to batao ki tum is ghane jangal mein kya kar rahi ho?’ koila ne puchha.
‘main apne mayke ja rahi thi ki rasta bhatak kar idhar aa nikli hoon. ’ rakshsi boli.
‘theek hai, main tumhein rasta batata hoon. tum yahan se sidhe jana aur jahan tumhein ek bahut uncha peD mile vahan se dayen muD jana. tum gaanv pahuch jaogi. ’ koila ne rakshsi ko rasta batate hue kaha.
‘dhanyavad bhaiya! tum baDe bhale insaan ho. lekin gaanv yahan se door hai aur mera bachcha bahut bhukha hai. yadi tum mujhe gaay ka thoDa sa doodh de do to mere bachche ka pet bhar jayega. ’ rakshsi ne kaha.
‘theek hai, ye lo dona. ismen gaay ka doodh duh lo aur apne bachche ko pila do. ’ koila ne peD ke patte se dona banakar niche phenkte hue kaha.
‘mujhse gaay duhte nahin banta hai, tum peD se utarne ka kasht karo aur mere bachche ke liye doodh duh do. main tumhara upkaar jivan bhar nahin bhulungi. ’ rakshsi mamtamyi maan ka abhinay karti hui boli.
koila ko peD se utarna hi paDa. wo peD se utarkar jaise hi gaay ki or baDha vaise hi rakshsi ne use pakDa aur ek bore mein band karke apni gufa ki or chal di. koila bhi samajh gaya ki aaj phir wo rakshsi ke jaal mein phans gaya hai. magar wo ghabraya nahin aur shaant bana raha.
aaj rakshsi pani pine ko nahin ruki. wo hanphati hui sidhe apni gufa mein pahunchi.
‘dekh beti, aaj main kya lai hoon. ’ rakshsi ne apni beti ke aage jhola rakhte hue kaha.
‘kya lai ho, vahi kankaD patthar?’ laDki ne munh banate hue kaha.
‘tum dekho to sahi aur suno, main haath munhah dhone ja rahi hoon tab tak tum kaat koot kar paka Dalna. ’ ye kahkar rakshsi haath munh dhone chali gai.
rakshsi ki beti ne jhole se koila ko bahar nikala.
‘to tumhin ho jo kal meri maan ko jhansa dekar bhaag ge the. ab aaj main tumhein pakaungi. ’ rakshsi ki beti koila ko dekhkar bahut khush hui.
‘vo to sab theek hai lekin ye to batao ki tum mujhe pakaogi kaise? mera sharir to tumhari hanDi se bahut baDa hai. ’ koila ne puchha.
‘tum chinta mat karo. main pahle tumhein okhli mein Daal kar kutungi aur phir hanDi mein pakaungi. rakshsi ki beti ne kaha. ye sunkar koila ke sharir mein bhay ke mare jhurjhuri dauD gai.
‘phir to theek rahega. magar ye batao ki itni chhoti si okhli mein tum mujhe kutogi kaise? mera sharir to ismen samayega hi nahin. ’ koila ne puchha.
‘tum chinta mat karo. main pahle tumhara sir okhli mein Daal kar kutungi, phir haath pair aur phir baqi dhaD usmen Daal dungi. ’ rakshsi ki beti ne bataya.
‘yadi aisa hai to theek hai lekin mujhe lag raha hai ki tum jhooth bol rahi ho. itni si okhli mein mera sir ghusega hi nahin. ’ koila ne shanka prakat ki.
‘ghus jayega. ’ rakshsi ki beti ne kaha.
‘nahin ghusega. ’ koila ne driDh svar mein kaha.
koila ki baat sunkar rakshsi ki beti ko baDa taav aaya.
‘dekho, main dikhati hoon ki okhli mein sir kaise ghusega. ’ ye kahte hue rakshsi ki beti ne apna sir okhli mein ghusa diya. koila yahi to chahta tha. usne ek pal bhi ganvaye bina musal uthaya aur okhli mein patak diya. rakshsi ki beti ka sir kuchal gaya aur wo mar gai. ab koila ne rakshsi ki beti ke tukDe tukDe kiye aur hanDi mein paka diya. itne mein rakshsi haath munh dhokar laut aai. koila vahin chhip gaya.
rakshsi ne hanDi ko dekha aur samjha ki uski beti ne koila ko paka diya hai. usne apni beti ko pukara. koi uttar na milne par rakshsi ne socha ki shayad beti bhi haath munh dhone chali gai hogi. rakshsi ne raha nahin gaya aur usne hanDi se paka hua maans nikala aur kha Dala. kha pi kar rakshsi ko neend aane lagi. wo vahin let gai aur thoDi der mein uske kharraton se gufa gunjne lagi.
uchit avsar dekhkar koila bahar nikla aur usne musal utha kar rakshsi ke sir par de mara. rakshsi vahin mar gai. iske baad koila ne rakshsi ki gufa se wo sara dhan utha liya jo rakshsi ne rahgiron ko maar markar ikattha kiya tha.
dhan lekar koila apne pashuon ke paas pahuncha. pashuon ko ikattha karke apne ghar ki or chal paDa. us din ke baad se koila aur uski maan sukh se jivan yapan karne lage.
स्रोत :
पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 40)
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