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हांची

hanchi

एक बुढ़िया के दो बच्चे थे, एक बेटा और एक बेटी। बेटी के बाल सोने के थे। पर उसके भाई का कभी उन पर ध्यान नहीं गया। लेकिन जब वे बड़े हो गए और लड़की सुंदर युवती हो गई तो अचानक भाई ने उसके सोने के बालों को देखा, मानो उसने पहले कभी उन्हें देखा हो, और उस पर आसक्त हो गया।

वह माँ के पास गया और याचना करने लगा कि उसका बहन से ब्याह कर दे। सुनकर माँ स्तब्ध रह गई। उसे लगा कि विपत्ति आने वाली है। पर उसने अपने भावों को प्रकट नहीं होने दिया और बेटे को विवाह भोज के लिए आटा, चावल और मसूर लेने के लिए शहर भेज दिया। बेटे के जाते ही वह बेटी के पास गई। बोली, “बेटी, तुम्हारा मुझसे अलग होने का वक़्त गया है। आज के बाद तुम मेरे लिए मरे समान हो। तुम इतनी सुंदर हो कि मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकती। तुम्हारे सोने के बालों को देखकर कोई भी तुम्हें चाहे बिना नहीं रह सकता। तुम्हारे लिए मैं एक मुखौटा बनवा देती हूँ। वह तुम्हारे चेहरे और बालों को छुपा कर तुम्हें संकट से बचाएगा।”

माँ भागी-भागी कुम्हार के पास गई और सोने का बर्तन देकर बेटी के लिए मुखौटा बनाने को कहा। उसी रात उसने बेटी को खाने की पोटली दी और घर से विदा कर दिया। विदाई के समय माँ ने कहा, “जब तक तुम्हारे अच्छे दिन जाएँ मुखौटा मत हटाना!” बेटी के जाने के बाद मारे दुख के बेचारी माँ ने ज़हर खा लिया। अगले दिन बेटा शहर से वापस आया। उसने देखा कि माँ मरी पड़ी है और बहन का कहीं पता नहीं है। बहन को उसने बहुत तलाश किया, पर अकारथ। वह पागल हो गया और दर-दर भटकने लगा।

उधर उसकी बहन भी यहाँ-वहाँ डोलती रही जब तक कि माँ की पोटली का भात और रोटियाँ ख़त्म नहीं हो गईं। उसका चेहरा माटी के हांचू (खपरैल) की तरह दिखता था। इसलिए उसने अपना नाम बदलकर हांची रख लिया। दोपहर और आधी रात को वह किसी नदी-नाले के पास रुकती और पोटली खोलकर कुछ पेट में डाल लेती। चलते-चलते जब वह घर से बहुत दूर गई तब उसका एक बुढ़िया से परिचय हुआ। बुढ़िया ने उसे अपने घर में रखा और उसे खाना दिया। एक दिन बुढ़िया ने उसे बताया कि एक अमीर साहूकार को नौकरानी की ज़रूरत है। वह पास ही रहता है। वह उससे हांची को रखने की बात पक्की कर आई है। हांची राज़ी हो गई और साहूकार की हवेली पर काम करने चली गई। वह बहुत अच्छा खाना बनाती थी। चावल के व्यंजन बनाने में तो उसका कोई सानी नहीं था।

कुछ दिन बाद साहूकार ने अपने बग़ीचे में भोज का आयोजन किया। उसने हांची से बढ़िया से बढ़िया चावल के मीठे पकवान बनाने को कहा। घर के सब लोग भोज के लिए बग़ीचे में चले गए, सिवा हांची और साहूकार के बेटे के, जो किसी काम से बाहर गया हुआ था। हांची ने सोचा कि वह घर में अकेली है। सो वह स्नान के लिए पानी गरम करने लगी। घरवालों के आने से पहले-पहले वह नहा लेना चाहती थी। उसने मुखौटा हटाया, अपने अद्भुत सुनहरे बाल खोले, रूखे शरीर पर तेल की मालिश की और नहाने लगी। तभी साहूकार का बेटा लौट आया और नौकरानी हांची को आवाज़ दी। गुसलखाने में हांची को कुछ सुनाई नहीं दिया। वह चिढ़ा हुआ उसे पूरे घर में ढूँढ़ने लगा। आहट सुनकर उसने गुसलखाने में झाँका और हांची के सौंदर्य के संपूर्ण वैभव को देखा। हांची को पता चलने से पहले ही वह दबे पाँव वापस चला गया। हांची के दिप-दिप करते सौंदर्य और उसके सुनहरे बालों की आभा पर वह मर मिटा। उसने उसे अपनी पत्नी बनाने का निश्चय किया।

घरवाले बग़ीचे से वापस आए तो बेटा माँ को एक तरफ़ ले गया और उसे अपनी मंशा बताई। माँ यह जानकर हैरान रह गई और उसे दुख भी हुआ कि उसका बेटा काली-कलूटी नौकरानी पर लट्टू हो गया है। उसने बेटे को समझाया कि वह नीच जाति की काली छोकरी के पीछे अपना जीवन बर्बाद करे। माँ ने उसे वचन दिया कि कुछ ही दिनों में वह उसके लिए खाते-पीते घर की सुंदर बहू ला देगी। पर बेटे ने हठ नहीं छोड़ा। माँ बेटे में काफ़ी तकरार हुई। आख़िर बेटे ने माँ हाथ पकड़ा और हांची के पास ले गया। हांची कुछ समझती उससे पहले ही साहूकार के बेटे ने झटके से उसका मुखौटा उतारा और ज़मीन पर पटक दिया। उनके सामने सोने के बालों का भव्य मुकुंट पहने भव्य हांची खड़ी थी। उस अपूर्व सौंदर्य को देखकर माँ अवाक रह गई। उसे बेटे की दीवानगी समझ में गई। हांची की शिष्टता और विनम्रता को तो वह शुरू से ही पसंद करती आई थी। अप्रतिभ खड़ी हांची को वह अपने साथ दूसरे कमरे में ले गई और उससे कुछ बातें पूछीं। उसकी विचित्र कथा सुनकर वह उसे और भी अधिक चाहने लगी। शुभ मुहूर्त निकालकर उसने शीघ्र ही हांची का अपने बेटे से ब्याह कर दिया।

नवदंपत्ति कुमरी के जोड़े की तरह ख़ुश थे। पर उनकी ख़ुशी ज़्यादा दिन नहीं चली। एक तांत्रिक साहूकार का ख़ास सलाहकार था। साहूकार के घर में सब उसे गुरुस्वामी कहते थे। जादू-टोने और तंत्र-मंत्र के सिद्ध के रूप में उसकी ख्याति थी। गुरुस्वामी की बहुत दिनों से हांची पर नज़र थी। जैसे भी हो वह उसे हासिल करना चाहता था। एक दिन हांची की सास ने गुरुस्वामी से कहा कि पोते का मुँह देखने के लिए वह अब और इंतज़ार नहीं कर सकती। सुनकर गुरुस्वामी के मन में लड्डू फूटने लगे। उसने तुरंत सारी युक्ति सोच ली। उसने गृहस्वामिनी से कहा कि वह हांची को उसके पास भेज दे। वह ऐसा टोटका करेगा कि जल्दी ही उसके पाँव भारी हो जाएँगे। इसके लिए उसने कुछ केले, बादाम, तांबूल और सुपारी की माँग की।

एक शुभ दिन गुरुस्वामी ने हांची को बुलवाया। मंत्रबिद्ध फल-मेवे उसके सामने रखे थे। अगर हांची इन्हें खा ले तो वशीकरणमंत्र अपना काम करेगा और उसे गुरुस्वामी के पास आना ही पड़ेगा। हांची उसके पास आई उस समय वह मोहनीमंत्र जप रहा था और प्रार्थना कर रहा था कि हांची उसकी हो जाए। पर हांची उसके झाँसे में आने वाली नहीं थी। ऐसे तांत्रिकों को वह ख़ूब जानती थी। गुरुस्वामी ने उसे एक केला खाने को दिया। हांची ने उसे चुपके से नाली में गिरा दिया और दूसरा केला खा लिया जो वह अपने साथ लाई थी। उस रात गुरुस्वामी अपने कमरे में गया तो उसे पूरा भरोसा था कि मोहनीमंत्र हांची को खींच लाएगा और उसकी बाँहों में डाल देगा। वह पलंग पर लेटा उसका इंतज़ार करने लगा।

संयोग की बात कि नाली में पड़े मंत्रबिद्ध केले को एक भैंस ने खा लिया और गुरुस्वामी को प्राणप्रण से चाहने लगी। वह मस्ती में आकर गुरुस्वामी के कमरे की ओर भागी और अपने सींग उसके दरवाज़े पर मारने लगी। यह सोचकर कि हांची आई है, गुरुस्वामी ने लपककर दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही कामुक भैंस उस पर पिल पड़ी और उसे बुरी तरह घायल कर दिया।

पर गुरुस्वामी ने हार नहीं मानी। कुछ दिन बाद उसने हांची की सास को कहा कि एक अनुष्ठान के लिए वह हांची को उसके पास भेजे। जब हांची उसके पास आई तो उसने उसे मंत्रबिद्ध बादाम और तांबूल खाने को दिए। पर चतुर हांची ने वही पुरानी तरकीब काम में ली। उसने उनके स्थान पर अपने साथ छुपाकर लाए बादाम और तांबूल खा लिए। वापस अपने कमरे में जाते हुए हांची ने गुरुस्वामी के दिए बादाम और तांबूल अलग-अलग भगोनों, देगचियों और कटोरों में रख दिए। रात को वे भगोने, देगचियाँ और कटोरे गुरुस्वामी के कमरे की ओर लुढ़कते हुए आए और दरवाज़े से टकराए। हांची का बेसब्री से इंतज़ार करते गुरुस्वामी ने लपककर दरवाज़ा खोला। पर आलिंगन और चुंबनों के बदले उसे निर्जीव बर्तनों की मार झेलनी पड़ी। तीसरी बार हांची ने गुरुस्वामी की दी सुपारी को झाड़ू पर फेंक दिया। कंटीले झाडू की मार से लंपट तांत्रिक का पूरा शरीर लहूलुहान हो गया। वह समझ गया कि मोहनीमंत्र यहाँ काम नहीं करेगा, सो उसने दूसरी चाल चलने की सोची।

वह अपने पुराने मित्र हांची के ससुर के पास गया और उसे अपने बग़ीचे में फिर भोज का आयोजन करने की सलाह दी। बूढ़ा साहूकार मान गया। हांची ने इस बार भी चावल के उम्दा व्यंजन बनाए और सुशील बहू की तरह घर पर ही रही। उसके अलावा घर के सब लोग भोज में शामिल हुए।

भोज के बीच में गुरुस्वामी ने सबसे कहा कि वह घर पर कुछ भूल आया है और अभी वापस आता है। हांची रसोई में काम कर रही थी। वह चुपके से हांची के कमरे में गया। वहाँ उसने सदरी, पगड़ी वग़ैरा आदमी के पहनने के कपड़े पलंग पर रखे और चबाए हुए पान के अंश और बीड़ी के टोंटे फर्श पर और पलंग के नीचे बिखेर दिए।

इसके बाद वह भागते हुए बग़ीचे में गया जहाँ साहूकार के घर वाले आमोद-प्रमोद में व्यस्त थे। वहाँ पहुँचते ही वह हाँफते हुए चिल्लाया, “तुम्हारी बहू छिनाल है। मैं उसे उसके यार के साथ देखकर रहा हूँ। मेरी तो अक़्ल काम नहीं करती। बेहया ने सारे घर की नाक कटा दी। नारी की मर्यादा को उसने धूल में मिला दिया। घोर अनर्थ! महापातक! पापिन सारे कुल को ले डूबेगी। कुलटा! रंडी!”

परिवार के हितैषी के मुँह से ये दहकते हुए शब्द सुनकर सब घर की ओर भागे। सात्विक क्रोध से खौलते हुए गुरुस्वामी ने उन्हें सारे प्रमाण बताए। सदरी, पगड़ी, पान के अवशेष और बीड़ियों के टोंटे सब चीख़-चीख़कर कह रहे थे कि हांची बदचलन है। अपने कमरे में यह सब देखकर हांची हैरान रह गई, पर किसी ने भी उसकी सफ़ाई पर कान नहीं दिया। उसने कहा कि गुरुस्वामी बुरा आदमी है। उसने उसके काले जादू के बारे में भी बताया। पर अब उनका हांची पर कोई विश्वास नहीं रह गया था। उन्होंने उसे इतना मारा कि उसके शरीर पर नील जम गए। हांची ने देखा कि हर कोई उसके ख़िलाफ़ है तो उसने अपने होंठ सी लिए और होनी के आगे समर्पण कर दिया। उन्होंने उसे कमरे में बंद कर दिया और तीन दिन तक भूखा रखा। फिर भी वे उससे जुर्म क़बूल नहीं करवा सकें। उसकी हठीली चुप्पी ने पति और सुसर का ग़ुस्सा और भड़का दिया। अपनी चाल की कामयाबी पर गुरुस्वामी फूला नहीं समाया। कहने लगा, “मार-पीट का इस छिनाल पर कोई असर नहीं होगा। इसके पाप की इसे पूरी सज़ा मिलनी चाहिए। इसे संदूक़ में बंद करके मुझे दे दो। मैं इसे नदी में फेंकवा दूँगा। पापिन से आप नरमाई से पेश रहे हैं। जैसी करनी वैसी भरनी। इसे वही सज़ा मिलनी चाहिए जिसके यह लायक है।”

क्रोध और लज्जा ने उन्हें अंधा कर दिया था। वे हांची को घसीटकर लाए, उसे संदूक़ में बंद किया और गुरुस्वामी के हवाले कर दिया। संदूक़ को नौकरों से उठवाकर गुरुस्वामी चल पड़ा। अपने षड्यंत्र की सफलता पर उसका दिल बल्लियों उछल रहा था।

अब उसे इन नौकरों से छुटकारा पाना था। उसने उनसे कहा कि नदी बहुत दूर है। इसलिए वे सुबह तक के लिए संदूक़ को एक बुढ़िया के यहाँ रख दें जो शहर के बाहर रहती है। गुरुस्वामी को पता नहीं था कि यह बुढ़िया हांची की मुँहबोली माँ है। उसी ने हांची को साहूकार के यहाँ काम दिलवाया था। गुरुस्वामी ने बुढ़िया से कहा कि संदूक़ में ख़ूँख़ार पागल कुत्ते हैं। सुबह वह इन्हें नदी में फेंकवा देगा। उसने बुढ़िया को बार-बार सचेत किया कि वह संदूक़ से कतई छेड़छाड़ करे, नहीं तो कुत्ते उसे फाड़ खाएँगे। बुढ़िया का चेहरा भय से पीला पड़ गया। गुरुस्वामी ने उससे वादा किया कि वह जल्दी ही ख़तरनाक कुत्तों को ले जाएगा।

उसके जाने के बाद बुढ़िया को संदूक़ में से अजीब आवाज़ सुनाई पड़ी। पहले तो उसने समझा कि कुत्ते किकिया रहे हैं। पर फिर उसे अपना नाम सुनाई दिया। हांची ने बुढ़िया को पहचान लिया था और मदद की याचना कर रही थी। बुढ़िया ने डरते-डरते संदूक़ का ढक्कन थोड़ा-सा उठाया और झिरी में से भीतर झाँका तो उसके विस्मय का पार रहा। अंदर हांची गुड़ी-मुड़ी हुई पड़ी थी। बुढ़िया ने उसे बाहर निकाला और कुछ खाने को दिया। कई दिनों से हांची ने कुछ नहीं खाया था। भूख के मारे उसकी जान निकली जा रही थी। उसने बुढ़िया को अपने अभाग और कमीने गुरुस्वामी की करतूतों के बारे में बताया। बुढ़िया ने पूरी बात ध्यान से सुनी। उसके मातृचातुर्य ने जल्दी ही एक जुगत सोच ली। हांची को उसने भीतर कोठरी में छुपाया और घर से निकल पड़ी। कई गलियों में भटकने के बाद उसे एक ऐसा आदमी मिल गया जो अपने पागल कुत्ते से छुटकारा पाना चाहता था। बुढ़िया ने पागल कुत्ते के मुँह पर मोहरा डाला और घर लाकर संदूक़ में बंद कर दिया। संदूक़ का ढक्कन ठीक से बंद करने से पहले उसने मोहरा ढीला कर दिया। गुरुस्वामी शीघ्र ही वापस गया। वह अपनी सफलता का प्रभाव हांची पर देखना चाहता था। इत्र से महकते कपड़े पहने हुए वह गुनगुनाता हुआ भीतर आया और संदूक़ की कुंडी का मुआयना करने लगा। बुढ़िया ने काँपती हुई आवाज़ में बताया कि डर के मारे उसने संदूक़ को छूआ तक नहीं। गुरुस्वामी ने उससे कमरे में अकेला छोड़ने को कहा ताकि वह सांझ की प्रार्थना कर सके।

बुढ़िया के जाने पर उसने कमरे का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया। फिर उसने प्यार से हांची को पुकारा और झटके से संदूक़ का ढक्कन खोला। संदूक़ के अंदर ख़ूँख़ार कुत्ते को देखकर उसका कलेजा मुँह को गया। कुत्ते का मुँह झाग से सना हुआ था। कुत्ता उस पर झपटा और ठौर-ठौर काट खाया। गुरुस्वामी का चीख़ना-चिल्लाना सुनकर पड़ोसी दौड़े आए। उन्होंने कुत्ते को मार डाला, पर वे गुरुस्वामी को नहीं बचा सके।

गुरुस्वामी की मौत का समाचार सुनकर हांची के पति और उसके घर वालों को बहुत दुख हुआ। कुछ महीने बाद बुढ़िया ने उन्हें खाने पर बुलाया। जब तक हांची को न्याय नहीं मिल जाता बुढ़िया चैन से कैसे बैठ सकती थी! साहूकार और उसके घर वालों को बुढ़िया ने बहुत अच्छा खाना परोसा। उनके खाने में चावल के इतने बढ़िया व्यंजन थे जो हांची के अलावा कोई नहीं बना सकता था। उन्हें चखकर सबको हांची की याद आई और वे उदास हो गए। उन्होंने पूछा कि ऐसा उम्दा खाना किसने बनाया। निश्चित ही वह हांची जितनी ही कुशल है। कोई जवाब देने की बजाए बुढ़िया ने हांची को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। हांची के ससुराल वालों को अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ। वे तो यह समझे बैठे थे कि वह कब की मर-मरा गई और नदी में बहकर इतनी दूर चली गई जहाँ से कोई वापस नहीं आता। गुरुस्वामी ने उन्हें उससे छुटकारा दिलवाया और उसके बाद बेचारा पागल होकर मर गया। बुढ़िया ने उन्हें हांची और दुष्ट गुरुस्वामी की सच्ची कथा बताई।

हांची के पति और उसके घर वालों के पश्चाताप की सीमा रही। अपनी बहू के साथ उन्होंने कैसा बुरा बरताव किया! आस्तीन के साँप गुरुस्वामी के लिए उन्होंने बहुत बुरा-भला कहा और हांची से उन्हें क्षमा करने की याचना की। हांची के अच्छे दिन लौट आए। उस दिन के बाद उसे किसी तरह की कोई कमी नहीं रही।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 313)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2001

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