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फुलवा और दुखिया

phulva aur dukhiya

भागलपुर ज़िले में सुदूर दक्षिण दिशा में स्थित सनहौला नामक गाँव में एक लड़की रहती थी। उसका नाम था फुलवा माँझी। बरगद की छाँव में वह अपनी सहेलियों संग बचपन में गोटी खेला करती थी। बरगद की जड़ें हवा में लहराती थीं तो वह और उसकी सहेलियाँ उसे पकड़कर झूला झूलती थीं। कभी-कभी जड़ उसके हाथों से फिसल जाती थी तो वह औंधे मुँह गिर पड़ती थी। इस पर उसकी सहेलियाँ उसे चिढ़ा-चिढ़ा कर हँसती थीं, विशेष रूप से दुखिया, जो उसकी ख़ास सहेली थी।

मौसम में उसके गाँव का पूरा जंगल सखुआ के सफ़ेद फूलों और पलाश के लाल फूलों से गदरा जाता था। महुआ की ख़ुशबू से तो पूरा जंगल जैसे मदहोश हो जाता था। जंगल में जंगली जानवरों के पीछे युवक, बच्चे और बूढ़े सभी तीर-धनुष, कुल्हाड़ी और लाठी लेकर हो-हो करते हुए दौड़ते तो उन्हें उत्साहित करने में बहुत आनंद आता था। फुलवा और दुखिया को यह दृश्य अनायास ही अपने पूर्वजों की याद दिला देता था। वे भी शायद इसी तरह से नुकीले पत्थरों के टुकड़ों को लेकर जंगली जानवरों के पीछे शिकार के लिए ऊँची-नीची, गहरी खाइयों और खंदकों में दौड़ते होंगे। उसे बालों में सखुआ का फूल खोंसकर सरहुल में झुमर गाना बहुत मनमोहक लगता था।

एक बार की बात है। गाँव में अपने घर के बाहर हरी-भरी घास पर बैठी अपनी सहेली दुखिया के साथ फुलवा गप्प लड़ा रही थी। अचानक उसे पैरों के तलवे में नर्म-मुलायम सुखद स्पर्श का अनुभव हुआ। वह चौंक गई फिर देखा कि उसके पैरों के आस-पास गिलहरी का एक जोड़ा निडर होकर ज़मीन पर बिखरे मूँगफली के दानों को फुदक-फुदककर चुन-चुनकर खा रहा था। गिलहरी को देखकर उसे दादी द्वारा सुनाई पुरानी कहानी याद गई। बचपन में दादी ने उसे बहुत सारी कहानियाँ सुनाई थी जिसमें यह गिलहरी वाली कहानी सबसे प्रिय थी।

रामायण में जब श्री रामचंद्र भगवान को लंका जाना पड़ा, तब वानर-सेना समुद्र में पुल बाँधने के लिए अथक परिश्रम और उत्साह से बड़े-बड़े पत्थरों को समुद्र में डाल रही थी। गिलहरी भला पीछे क्यों रहती। वह भी अपनी शक्ति के अनुसार पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों को समुद्र में फेंक रही थी। इस मनोहारी दृश्य को भगवान श्रीराम बड़े प्यार से दूर से ही देख रहे थे। गिलहरी को देखकर एक वानर को मज़ाक सूझा और उसने विनोदी लहजे में गिलहरी से कहा, “अरे गिलहरी बहन, क्या तुम्हारे इन टुकड़ों से पुल बँधेगा? जाओ-जाओ आराम करो।” वानर की बातों को सुनकर गिलहरी को बड़ा दुख हुआ। वह झुरमुट की ओट में जाकर सिसक-सिसककर रोने लगी। श्रीरामचंद्र जी गिलहरी को गोद में उठाकर चुप कराने लगे। गिलहरी भगवान का स्नेह स्पर्श पाकर फिर से सुबकने लगी। जब भगवान स्नेह से पीठ सहला रहे थे उसी समय भगवान की अंगुलियों की सुंदर छाप गिलहरी की पीठ पर अंकित हो गई। फुलवा बार-बार यही कहानी सुनाने की ज़िद करती थी अपनी दादी से।

फुलवा को बचपन की एक और रोचक घटना याद रही थी जब उसकी सहेली दुखिया को गोदना गोदवाया जा रहा था। दुखिया के अंग-प्रत्यंग में गोदने की कलाकृति उकेरी गई थी।

वस्तुतः गोदना कलाकृति तो आदिवासी संस्कृति की प्राचीन परंपरा है जो आधुनिक ज़माने में भी लोगों को आकर्षित करती है। यानी प्राचीन परंपरा का अस्तित्व बहुत गहरा है।

फुलवा की आँखों में दुखिया की छवि सामने मुस्कुराती नज़र रही थी। वह उसे भूलना नहीं चाहती थी। दोनों साथ-साथ पढ़ने जाया करती थी। फुलवा को याद है, दुखिया इतनी तेज़ थी कि अन्य सभी सहेलियों से सबसे आगे रहती थी। छुट्टी के दिनों में दोनों मवेशी चराने के लिए जंगल जाते थे तो जंगल का चप्पा-चप्पा छान मारते थे। कंद-मूल, फल-फूल से भरकर थैला घर लाते थे, जिसे स्वाद ले-लेकर गाँव के सभी बड़े-बुज़ुर्ग जैसे चाचा-चाची, दादा-दादी खाते थे और उन्हें आशीर्वाद देते नहीं थकते थे।

लेकिन समय जो कराए। नियति में शायद कुछ और ही लिखा था। हैज़ा के कारण दुखिया के पिताजी चल बसे। बेचारी आगे पढ़ सकी। वह अब अपनी माँ के साथ घर के कामों में उलझ गई। कभी जंगल से लकड़ी ढोकर लाती, कभी खेतों में काम करती, कभी मेहनत मज़दूरी करती तो कभी बाज़ार जाती। इतनी छोटी उम्र में ही दुखिया ने ज़िंदगी के हर मर्म को समझ लिया।

आदिवासी संस्कृति और परंपरा के अनुसार सभी लड़कियों को गोदना गोदवाना अनिवार्य होता था, भले ही आज के फ़ैशन युग में इसकी अहमियत कम हो गई है। तब दुखिया की माँ उसे गोदना गोदवाने की फ़िक्र में रोज़ एक-एक मुट्ठी चावल छिपाकर रखती थी ताकि गोदनेवाली औरत को सिद्धा दे सके। एक दिन गाँव में गोदना गोदने वाली आई। दुखिया की माँ ने उसे गोदना गोदवाने के लिए विवश किया।

वह बिलकुल तैयार नहीं थी, लेकिन माँ के तर्क के सामने वह हार गई। वह मन मसोसकर आँगन में गोदनेवाली के सामने बैठ गई। औरत ने कालिख वग़ैरा मिलाकर घोल तैयार किया। सात सुइयों के गुच्छे को कालिख में डुबोया और शुरू हो गई गोदना गोदने की लोमहर्षक क्रिया। गाँव की दो औरतों ने दुखिया को कसकर पकड़ रखा था, इस ख़तरे में कि कहीं बीच में ही दर्द के कारण वह उठकर भाग जाए क्योंकि अक्सर ऐसा होता था।

दुखिया के मुँह में कपड़ा ठूँस दिया गया था। जैसे ही गोदनेवाली ने सुइयों को दुखिया के शरीर में चुभोया, फुलवा का रोम-रोम सिहर उठा था। रोंगटे खड़े हो गए उसके, फिर भी वह वहीं खड़ी होकर इस क्रूर दृश्य को देखती रही। बेचारी दुखिया बलि के मेमने की तरह तड़प उठी। आँखों से आँसू की अविरल धारा बह रही थी। गोदनेवाली बुदबुदाते हुए गोद रही थी मानो वह मन-ही-मन गोदने की डिज़ाइनिंग कर रही हो। गोदने में बहुत देर लगी। दुखिया के कपाल, दोनों कनपट्टी एवं ठुड्डी में बिंदी की तरह गोल-गोल गोदना गोदा गया। उसके बाद दोनों बाँहों में कलाई तक फूलदार लंबी पट्टी, छाती में कंठहार की तरह चौड़ी फूलदार पट्टी, पैरों में पायल की तरह फूलदार पट्टी गोदी गई।

दुखिया का पूरा शरीर दर्द से भर गया था। जैसे ही मुँह से कपड़ा निकाला गया वह चीख़-चीख़ कर रोने लगी। ग़ुस्से में गोदनेवाली को एक लात दे मारी, मानो सारा दर्द और ग़ुस्सा उतार रही हो। लेकिन गोदनेवाली ने ज़रा भी बुरा नहीं माना। उसने मुस्कुराते हुए हाथ-पैर सीधा किया और कहा, “हमारा तो धंधा ही ऐसा है। मुझे तो आए दिन ये सब सहना पड़ता है। पर आजकल इतना गोदना गोदवाने वाले मिलते कहाँ हैं?” दुखिया की माँ ने उसे पाँच पैला (सेर) चावल दिया जिसे उसने बड़ी मेहनत से जमा किया था।

जब गोदनेवाली सामान समेटने लगी तो भीड़ से दिल्लगी-भरी आवाज़ आई, “अरे! अरे ! सामान मत समेटो, अभी तो इस भीड़ में कई बच्चियाँ हैं, इन्हें भी गोदवाना है।” बच्चियों की टोली सिर पर पाँव रखकर भागी थी। फुलवा भी भागती-भागती सीधे अपनी दादी के पास पहुँची थी। दादी के गले लिपटते हुए उसने पूछा था, “गोदना क्यों गोदवाते हैं?” इस पर दादी ने कहा था, “परलोक में गोदना ही पैसे के काम आता है। इसी धार्मिक विश्वास के कारण आदिवासी समाज में सभी स्त्री-पुरुष गोदना गोदवाते हैं। देखती नहीं हो, मेरे पूरे शरीर में गोदना है, तुम्हारी माँ और नानी के पूरे शरीर में भी गोदना है। गोदना तो धार्मिक विश्वास के साथ-साथ शृंगार भी है।” फुलवा को इस बात की ख़ुशी थी कि वह फ़िलहाल गोदना गोदवाने से बच गई थी।

इधर दुखिया पंद्रह दिनों तक दर्द और बुख़ार से तपती रही। गोदना को रोज़ कच्ची हल्दी और ताज़ा गोबर से धोया जाता था। धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। उसके साँवले शरीर में गोदना बहुत ही सुंदर दिखाई पड़ता था, मानो चंदन की लकड़ी में किसी बढ़ई ने फूल उकेरा हो।

देखते-देखते बचपन पंख पसारे उड़ गया। दुखिया की शादी सुदूर जंगल के एक गाँव में हो रही थी। दोनों सहेलियाँ बिछुड़ रही थीं। देखते-ही-देखते वह ससुराल चली गई। दोनों नदी के दो पाट हो गए, क्योंकि फुलवा भी शहर चली गई नौकरी करने। जब-जब वह गाँव आती, तब-तब फुलवा नहीं रहती और जब फुलवा आती तो वह नहीं रहती थी।

पाँच वर्षों बाद पता चला कि दुखिया विधवा हो गई। जब उसके पति घास काटने के लिए खेतों में गए थे तब कोबरा साँप ने उसे डँस लिया था। इलाज बिना बेचारा झाड़-फूँक का शिकार बन गया। दुखिया महीनों तक अपने दुख में डूबी रही। अंत में जंगल की गोद ने ही उसे शरण दी। वह अपनी चार वर्षीय बेटी के साथ अकेले जीवन-बसर करने लगी थी। जंगल में पत्तियाँ तोड़कर लाती और दोना, पत्तल, गुँगु चटाई बनाती और बाज़ार में बेचकर ज़िंदगी की गाड़ी खींच रही थी। जब फुलवा को पता चला तो वह बहुत मर्माहत हुई और गाँव जाकर उससे मिलकर दुख बाँटना चाहती थी। पता करने पर पता चला कि वह किसी नन के साथ किसी और शहर चली गई थी। इस तरह से फुलवा का दुखिया से दोबारा मिलना हो सका। फुलवा ईश्वर से यही प्रार्थना कर रही थी कि तुम जहाँ भी रहो ख़ुश रहो। इसके अलावा वह बेचारी और कर ही क्या सकती थी।

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 136)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2019
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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