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चूहे की पगड़ी

chuhe ki pagDi

एक चूहा था। उसे कहीं से कपड़े की एक चिंदी मिल गई। चूहा भागा-भागा दर्ज़ी के पास पहुँचा।

‘दर्ज़ी-दर्ज़ी, इस चिंदी से मेरे लिए एक कुर्ता सिल दो।’ चूहे ने दर्ज़ी से कहा।

‘जा, कहीं और जा! मैं छोटे-मोटे काम नहीं करता।’ दर्ज़ी ने कहा।

‘जो तू नहीं करेगा तो मैं तेरी दुकान के सारे कपड़े काट लूँगा।’ चूहे ने धमकी दी।

‘ठीक है, ला, सिल देता हूँ।’ दर्ज़ी ने इस डर से हार मान ली कि कहीं सचमुच चूहे ने कपड़े काट दिए तो उसे लेने के देने पड़ जाएँगे।

कुर्ता पहनकर इतराता हुआ चूहा चल पड़ा बाज़ार में। रास्ते में उसे एक पनसारी की दूकान दिखी।

‘पनसारी, मुझे गुड़ दे दो।’ चूहे ने कहा।

‘जा, जा! मैं बिना पैसे के किसी को गुड़ नहीं देता।

‘जो तुम नहीं दोगे तो मैं तुम्हारी दूकान के अनाज के सभी बोरे काट दूँगा।

पनसारी डर गया और उसने गुड़ की एक भेली चूहे को दे दी। चूहा गुड़ लेकर राजा के पास पहुँचा।

‘राजा-राजा! आप मुझसे गुड़ लेकर बदले में अपनी पगड़ी मुझे दे दें।’ चूहे ने राजा से कहा।

‘मैं तुझे अपनी पगड़ी क्यूँ दूँ? जा नहीं देता।’ राजा ने कहा।

‘जो आप नहीं देंगे तो मैं आपका राजसिंहासन कुतर दूँगा।’ चूहा बोला।

राजा भी डर गया। उसने गुड़ के बदले अपनी पगड़ी चूहे को दे दी।

चूहा राजा की पगड़ी अपने सिर पर लगाकर शान से चल पड़ा। अब उसके पास नया कुर्ता और नई पगड़ी थी। राजा की पगड़ी लगाकर वह बाज़ार में पहुँचा। जिसने भी उसे राजा की पगड़ी पहने देखा उसने चूहे को प्रणाम किया। इस प्रकार चूहे को राजा के अधिकार मिल गए और वह राजा को हटाकर स्वयं राज करने लगा।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 312)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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