भोजपुरी लोकगीत : भादों भवन सोहावन न लागे
bhojapuri lokgit ha bhadon bhawan sohawan na lage
रोचक तथ्य
संदर्भ—विरहिणी की मनोदशा।
भादों भवन सोहावन न लागे, आसिन मोहि न सुहाय।।1।।
कातिक कन्त बिदेस गइल हो, समुझि समुझि पछताई।।2।।
अगहन आइलन कहि गइल ऊधो, पूस बितल भरि आस।।3।।
माघ मास जोबन के मातल, कइसे धरज जिउआस।।4।।
फागुन करकेले नैन हमार, चैत मास सुनि पाइ।।5।।
पियवा जे अइतन एहि बइसाखे, फुलवन सेजवा बिछइतीं।।6।।
जेठ मास बेआकुल जइसे राधे, नहिं हैं साम हमार।।7।।
हे प्रभु तोहर दरस बिना, कइसे खेवों मास असार्ह।।8।।
भादौं के महीने में मुझे अपना घर अच्छा नहीं लगता। आश्विन का महीना मुझे नहीं सुहाता।।1।।
कार्तिक मास में मेरे पति विदेश गए हैं, यह सोच-सोच कर मैं पश्चात्ताप करती हूँ (कि मैंने उन्हें आग्रहपूर्वक रोका क्यों नहीं)।।2।।
हे उद्धव जी! वे अगहन के महीने में आने के लिए कहकर गए और अब उनके आने की आशा में पूस भी बीता जा रहा है।।3।।
माघ के महीने में मैं यौवन से मतवाली हो रही हूँ। अब भला मैं कैसे
फागुन में मेरे नेत्र फड़कते हैं और चैत्र में समाचार सुन पाती हूँ।।5।।
यदि मेरे प्रिय इस वैशाख में आ जाते तो मैं फूलों की सेज बिछाती।।6।।
पली पति के लिए संबोधित कर कहती है—हे प्रिय! तुम्हारे दर्शन के बिना मैं आषाढ़ का महीना कैसे बिताऊँ।।8।।
- पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 116)
- संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
- प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
- संस्करण : 2002
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