अवधी लोकगीत : नहिं आये हो स्याम संघाती
avdhii lokagiit : nahi.n aaye ho syaam sa.nghaatii
रोचक तथ्य
संदर्भ—गोपियों की विरह-वेदना।
नहिं आये हो स्याम संघाती, बसन्त की थाती।।टेक।।
आये बसन्त बेहाल भये, मुरझाय गिरी सा पाती।
चम्पा, चमेली फूलि रहे बन, तामें भँवरा गुँजत बहु भाँती।।1।।
चकित होहुँ पिय कतहुँ, न देखौं रोम-रोम पीटत छाती।
बिरह बिहोस होस नहिं आवत, वाकी कइसे कटत दिन-राती।।2।।
कइके सिंगार पलँग पर बइठी, बिन मोहन अकुलाती।
जाके पिया परदेस में छाये, वहि तौ गहि कै कँगन पछिताती।।3।।
चलौ सखी हम एकमत करिकै, लिखौं स्याम को पाती।
द्विज हरिचरन स्याम कुबरी बस, बिस खाय सबहि मरि जाती।।4।।
एक गोपी अपनी सखी गोपियों से कहती है—साथ रहने वाले कृष्ण नहीं आये, जो वसंत ऋतु की थाती हैं।।टेक।।
वसंत के आने पर वृक्ष बेहाल हो गए, जिनसे सब पतियाँ मुरझा कर गिर गईं। चंपा और चमेली वन में फूल रहे हैं, उसमें भौंरे बहुत प्रकार से गूँजते हैं।।1।।
मैं चकित हूँ कि प्रियतम न जाने कहाँ होंगे। मैं उन्हें न देख रोम-रोम से दुःखी हो छाती पीटती हूँ। विरह ने मुझे बेहोश कर रखा है, होश नहीं आता है, फिर कैसे दिन-रात कटते हैं।।2।।
जो शृंगार करके पलँग पर बैठी हैं और कृष्ण के बिना आकुल हैं। जिसके प्रियतम परदेश में विराजमान हैं, वे कंगन पकड़कर पछताती हैं।।3।।
हे सखियो! चलो हम एकमत होकर चलें और श्याम को पत्रिका लिखें। श्रीकृष्ण कुबरी के वश में हैं, यदि ऐसा है तो हम सब विष खाकर मर जाएँगी।।4।।
- पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 175)
- संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
- प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
- संस्करण : 2002
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