राजस्थानी लोकगीत : पपैया थारे बोलण री रुत आई रे
raajasthaanii lokagiit : papaiya thaare bola.n rii rut aa.ii re
रुत आई रे पपैया थारे, बोलण री, रुत आई।
जेठ मास री लूवा रे बीती, अब सुरंगी रुत आई रे।
रुत आई रे पपैया थारे बोलण री, रुत आई रे॥
असाढ़ उतरियो, सावण लाग्यो काली घटा घिर आई रे।
कदेयक झोला चलै सूरियो, धीमी-धीमी पुरवाई रे।
रुत आई रे पपैया थारी, बोलण री, रुत आई रे॥
मोठ बाजरी सूं खेत लहरकै, बन-बन हरियाली छाई रे।
रुत आयी रे पपैया थारे बोलण री, रुत आई रे॥
झिरमिर-झिरमिर मेहड़ो बरसे, स्याम बदली घिर आई रे।
रुत आई रे पपैया, थारे बोलण री, रुत आई रे॥
ऋतु आई, ओ पपीहा! तुम्हारे बोलने की ऋतु आई है। जेठ मास की लूएँ बीत गईं, अब सुरंगी ऋतु आ गई है। आषाढ़ उतर गया, सावन लगा और काली घटा घिर आई है। कभी वर्षा लाने वाली उत्तरी हवा का झोंका लगता है और कभी धीमी-धीमी पुरवाई चलती है। ओ पपीहा! तुम्हारे बोलने की ऋतु आई है। मोठ-बाजरी से खेत लहराते हैं, वन-वन में हरियाली छा गई। ओ पपीहा! तुम्हारे बोलने की ऋतु आई है। झिरमिर-झिरमिर मेह बरसता है और श्याम बादली घिर गई है। ओ पपीहा! तुम्हारे बोलने की ऋतु आई है।
- पुस्तक : राजस्थानी लोकगीत (पृष्ठ 147)
- संपादक : पुरुषोत्तमलाल मेनारिया
- प्रकाशन : चिन्मय प्रकाशन
- संस्करण : 1968
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