अवधी लोकगीत : चरखा दहेजवा माँ देहौं समधी
avdhii lokagiit : charkha dahejava maa.n dehau.n samdhii
रोचक तथ्य
संदर्भ—चर्खा प्रचार।
चरखा दहेजवा माँ देहौं समधी,
छकड़ा लदाय लै जाउ।
घर पीछे एक चरखा हो समधी,
गँउवा माँ देहु बँटवाय।।1।।
रुइया मैं देहौं समधी चरखा के सथवा,
रचि-रचि पिउनी बनाय।
चरखा के सथवा पिउनी बटायहु,
कातैं सब गउवाँ के लोग।।2।।
केहु न देखै समधी रुपया पइसवा,
ओकर नाही कछु मोल।
काम त अइहैं रुपया तुहई के समधी,
देसवा कै कौन उपकार।।3।।
घर-घर चलिहै जो समधी चरखवा,
सब देहैं तुहुका असीस।
ओहि रे असिसवा से अन, धन, दूध, पूत,
रहिहै सुखी परिवार।।4।।
एक समधिन अपने समधी से निवेदन करती है कि हे समधी जी! मैं दहेज में चरखे दूँगी, आप छकड़े में लदाकर ले जाइए। आप इन चरखों को अपने गाँव के हर घर में बँटवा दीजिएगा।।1।।
हे समधी जी! मैं चरखे के साथ रच-रच कर रुई की पूनी बनाकर दूँगी। आप चरखे के साथ पूनी भी बँटा दीजिएगा, गाँव के सभी लोग सूत कातेंगे।।2।।
हे समधी जी! कोई रुपये-पैसे को नहीं देखता, उसका कोई मूल्य नहीं है। रुपये तो आपके ही काम आएँगे, किंतु उससे देश का क्या उपकार होगा?।।3।।
हे समधी जी! जब घर-घर चरखे चलेंगे तो सब लोग आपको आशीर्वाद देंगे। उसी से अन्न, धन, दूध, पूत होंगे और संसार सुखी रहेगा।।4।।
- पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 162)
- संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
- प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
- संस्करण : 2002
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