अवधी लोकगीत : चारि कुअन मोरे बाबा कै बखरिया
awadhi lokgit ha chari kuan more baba kai bakhariya
रोचक तथ्य
संदर्भ—कन्या-विवाह।
चारि कुअन मोरे बाबा कै बखरिया, परिगै अमिलिया कै छाँह।
जेहि तरे मोरे बाबा सोनवा संकलपइँ, हेरै लागे सुघर सोनार।।1।।
गढ़ सोनरा अंकन, गढ़ सोनरा कंकन, गढ़ सोनरा सोरहौ सिंगार।
एतना पहिरि बेटी चउके जौ बइठीं, बेटी के ढरै लागे आँसु।।2।।
की रे तुहइँ बेटी अनधन थोर भा, की रे कँधइया बर छोट।
कवन गुना मुरझाइउ मोरी बेटी, काहे गुना ढुरै लागे आँसु।।3।।
ना हमैं बाबा हो अनधन थोर भा, नाहीं कँधइया बर छोट।
हम जो गोरि बर साँवर बाबा, यही गुना ढुरै लागे आँसु।।4।।
साँवर-साँवर जिन कर बेटी, सँवर अहैं भगवान।
सँवरे के सोहै ढाल तलवरिया, गोर बिदह एस पान।।5।।
एक पुत्री सोचती है—मेरे पिता जी का घर बहुत बड़ा है, उसके चारों कोनों पर कमरे हैं; जिस पर इमली की छाया पड़ रही है, जिसके नीचे मेरे पिताजी सोना संकल्प करना चाहते हैं, इसीलिए वे चतुर सुनार की खोज कर रहे हैं।।1।।
वे सुनार से कहते हैं कि हे सुनार! कंगन आदि गढ़ो और सोलहों शृंगार
को गढ़ो। सुनार सब गढ़ लाया, इतना पहनकर पुत्री चौक पर बैठी तो उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।।2।।
ऐसा देखकर पिता ने पूछा—हे पुत्री! क्या तुम्हें अन्न-धन की कमी है या पति छोटा है? आख़िर किस कारण से तुम्हारे नेत्रों में आँसू आए?।।3।।
पुत्री ने कहा—हे पिताजी! न तो मुझे अन्न-धन की कमी है, न पति अल्पवयस हैं, बात यह है कि मैं गोरी हूँ और वे साँवले हैं, इसीलिए आँसू आ गए।।4।।
पिता ने समझाया—हे पुत्री! साँवलेपन की बात मत करो, साँवले तो भगवान् भी हैं। साँवले के हाथ में ढाल-तलवार होती है, किंतु गोरा तो पान की भाँति कोमल होता है।।5।।
- पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 157)
- संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
- प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
- संस्करण : 2002
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