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आप हमारी प्लेट में देखकर हमें जज क्यों करते हो!

कुछ सवाल जो मांसाहारी, मुझसे या/और वीगनवादियों से लगातार पूछते हैं—इसलिए नहीं कि उनको उत्सुकता है, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि वो मुझे अपमानित कर सकें। वो नहीं जानते कि इस दौरान वो पूरी तरह नंगे हो जाते हैं। उनका दोहरापन साफ़ दिखता है—क्रिस्टल क्लियर। यहाँ तक कि कुछ लोगों के तो सवाल तक नहीं होते, सिर्फ़ आरोप, गालियाँ या ताने होते हैं। इसी में से एक ताने पर आज विस्तृत बात करना चाहूँगा :

“आप वीगनवादी अपने को नैतिक रूप से हमसे ऊपर समझते हो ना? हमें जज करते हो ना? मज़ा तो ख़ूब आता होगा? चैन की नींद सो पाते होगे?”

इसके कई उत्तर एक साथ सही हैं। पहला उत्तर तो यह है कि चलिए इसी परमाइस (premise) के साथ चला जाए, तो भी इस ‘नैतिक क्लब’ के हम एक्सक्लूजिव सदस्य तो बनना नहीं चाहते कि इन वेदों का अध्ययन सिर्फ़ हम करेंगे और पीढ़ियों तक इतने ज्ञानी बन जाएँगे कि उनकी अगली कई पीढ़ियाँ—आरक्षण के बावजूद—हमारे ज्ञान को छू ना सके। या कि संसाधनों का दोहन सिर्फ़ हम करेंगे और पीढ़ियों तक इतने धनवान बन जाएँगे कि उनकी अगली कई पीढ़ियाँ—सब्सिडी के बावजूद—हमारे धन के साथ तुलना होने पर परेटो सिद्धांत के अस्सी वाले कोष्ठक में ही आएँ। यह सामाजिक प्रभुत्व की मानसिकता (social dominance orientation) का परिचायक हो सकता है, जहाँ कुछ समूह स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हैं और इस श्रेष्ठता को बनाए रखना चाहते हैं।

जैसा सुशोभित ने कहा, बन जाओ ना आप लोग भी वीगन, और हमें कुछ से बहुत सारे कर दो। इतने कि हम अप्रासंगिक हो जाएँ। भीड़ में खो जाएँ।

तो पहला पॉइंट यह कि कोई भी व्यक्ति (या समाज का कोई तबक़ा) यदि नैतिक, आर्थिक, सामाजिक, दैहिक या किसी भी प्रकार के सुपीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स से ग्रस्त है—जिसे मनोविज्ञान में कभी-कभी ऑर्थोरेक्सिया नर्वोसा जैसी स्थितियों में भी देखा जा सकता है, जहाँ भोजन की शुद्धता पर अत्यधिक ध्यान देने से श्रेष्ठता का भाव उत्पन्न होता है, तो यकीन कीजिए उसके हमेशा यही प्रयास रहेंगे कि वह अपनी इस एक्सक्लूज़िविटी को येन केन प्रकारेण रक्षित कर सके।

अब आप कहेंगे कि लोग धर्म परिवर्तन क्यों करवाते हैं? भाई इसीलिए, क्योंकि वो यह नहीं कहते—हम महान् हैं; वो कहते हैं और मानते हैं—हमारा धर्म महान् है। और ऐसे ही हम भी मानते हैं कि विगनिज़्म महान् है, या कम-से-कम अपने सभी काउंटरसिद्धांतों से बेहतर है।

फिर तो हम भी धर्मांध, हुए नहीं? अंतर है। उन्होंने सिर्फ़ अपने धर्म को पढ़ा है। वो ज़ायोन के मूल निवासी हैं, जो अपनी बनाई हुई आरामदायक दुनिया में सीमित हैं, हम मैट्रिक्स के भीतर के लोग हैं, जिन्होंने स्वेच्छा से रेड पिल चुनी है। नींद से जागना चुना है। यह उस ‘विलफ़ुल इग्नोरेंस’ या जानबूझकर अज्ञानता के विपरीत है, जिसके बारे में दार्शनिक सोरेन कीर्केगार्ड ने कहा था, “मूर्ख बनने के दो तरीक़े हैं। एक है उस पर विश्वास करना जो सच नहीं है; दूसरा है उस पर विश्वास करने से इनकार करना जो सच है”। हमने कठिन सत्य को चुना है।

दूसरा पॉइंट है—एड होमिनम (ad hominem) नाम की जानी पहचानी फ़ॉलसी। ठीक है, चलो, हम झंडाबरदार किसी भी कारण से इस झंडे को पकड़े हों, हमारे कितने ही निजी हित हों, लेकिन रिव्यू हमारा नहीं झंडे का होना चाहिए। व्यक्ति का नहीं सिद्धांत का होना चाहिए। किस क्रांति में, किसी अच्छे उद्देश्य में बुरे लोग नहीं जुड़े होते? चलिए हम बुरे ही सही। हम वो महिलाएँ ही सही जो रेप के झूठे आरोप में पुरुषों को ब्लैकमेल करती हैं। हम वो दलित ही सही जो रिवर्स कास्टिज़म करके सवर्णों को नॉन बैलेबल जेल करवाते हैं। हम वो अश्वेत ही सही जो किसी स्कूल में ओपन फ़ायर करते हों। हम घृणित, गलीच, व्यभिचारी ही सही। लेकिन आप बताइए ना क्या हम जो कह रहे वह ग़लत है? क्या उस चीज़ का रिव्यू नहीं होना चाहिए जो हम कह रहे? क्या यह ग़लत है कि आप—जी हाँ आप—जानवरों को पीड़ाएँ, बहुत ज़्यादा पीड़ाएँ पहुँचा रहे हो? अकेले अमेरिका में सालाना दस अरब से ज़्यादा जानवर फ़ैक्टरी फ़ार्मों में पाले और मारे जाते हैं, जहाँ उन्हें अत्यधिक भीड़भाड़ और अस्वच्छ परिस्थितियों में रखा जाता है। हमें छोड़ो, हमारी कारिस्तानियों की छोड़ो। “इधर उधर की बात ना कर, ये बता कारवां कहाँ उजड़ा?”

तीसरा पॉइंट है—चलिए हम आपको मांसाहारी के रूप में जज करते हैं, पर जज कौन नहीं करता। आप रेपिस्ट को रेपिस्ट कहते हैं ना। बुरी से बुरी सज़ा दिलाना चाहते हैं ना? To call a spade a spade. यह तो होना ही चाहिए ना? हाँ लेकिन ये ज़ेन के अनुसार 360 डिग्री में होना चाहिए। इस 360 डिग्री का मतलब क्या हुआ?

ज़ीरो डिग्री में लाल रंग, लाल है और हरा रंग, हरा है। लेकिन ज़ीरो डिग्री में लाल रंग ईर्ष्या का रंग हो सकता है, घृणा का रंग हो सकता है, हरा प्रेम का रंग हो सकता है, दुश्मन का रंग हो सकता है। मतलब रंगों के साथ आपके इमोशन अटैच्ड हैं।

जबकि 360 डिग्री में, जैसा ज़ेन गुरु शुनर्यू सुज़ुकी ‘ज़ेन माइंड, बिगिनर्स माइंड’ में समझाते हैं—लाल रंग सिर्फ़ और सिर्फ़ लाल है और हरा रंग सिर्फ़ और सिर्फ़ हरा। कोई स्ट्रिंग अटैच नहीं हैं। यह जानकारी एक न्यूज़ की तरह है, किसी ओपिनियन पीस या एडिटोरियल की तरह नहीं। यह ‘बिना निर्णय के वास्तविकता को जैसा है वैसा देखना’ है।

एक दूसरा उदाहरण देखिए—दो का पहाड़ा याद रखना भी एक मेमोरी है और उस प्रेमी ने या उस प्रेमिका ने आपको धोखा दिया, यह याद रखना भी एक मेमोरी है। लेकिन जहाँ दूसरी बात आपको दुखी करती है, वहीं दो के पहाड़े को रिपीट करने में आपके इमोशंस जागृत नहीं होते, आप अतीत के साथ अटैच नहीं होते। ऑफ़ कोर्स तब हो सकते हैं, जबकि इसे याद करवाते वक़्त आपके मास्टर ने आपको ख़ूब कूटा हो। या फिर आपके पिताजी आपको यह याद हो जाने के बाद आइसक्रीम खिलाने ले गए हों। मतलब क्रमशः बुरी और अच्छी याद—लेकिन सिर्फ़ याद नहीं।

अन्यथा तो दो का पहाड़ा सिर्फ़ दो का पहाड़ा है।

तो पॉइंट है कि स्पेड को स्पेड कहना, कुछ ग़लत नहीं। किसी चोर को चोर कहना, किसी सर्जन को सर्जन कहना कुछ ग़लत नहीं। यह एक जानकारी की तरह हो बस। ‘छी चोर’, ‘वाह सर्जन’ ना हो। ज़ीरो डिग्री ना हो। एक दिन इसी आधार पर लिखा था कि “लाल रंग लाल है और हरा रंग हरा। और अगर लाल रंग हरा होता तो भी वो हरा ही होता।”

तो किसी मांसाहारी को मांसाहारी कहना ऐसा ही है जैसा माँ को माँ कहना। बिना मुन्नवर राना या प्रसून जोशी या गोर्की के रेफ़रेंस के।

मुझसे कई लोग कहते हैं कि आप हमारी प्लेट में देखकर हमें जज क्यों करते हो। एक दशक के क़रीब के अपने कथित पत्रकारिता वाले अनुभव के दौरान—किसी अपहरणकर्ता की, किसी क़ातिल की ख़बर ब्रेक होने पर मैंने पत्रकारों को, बुद्धिजीवियों को कहते सुना है : पेलो साले को। सही ही कहते होंगे। पेला भी जाना चाहिए, लेकिन सिद्ध है आप भी तो जजमेंटल हैं ना? कि क़ातिल बुरा, पत्रकार अच्छा। चोर बुरा, सर्जन अच्छा। (ऑफ़ कोर्स अगर सर्जन क्रेज़ी मूवी का अभिमन्यु सूद ना हो)।

यह व्यवहार ‘डू-गुडर डेरोगेशन’ (do-gooder derogation) नामक मनोवैज्ञानिक घटना से भी समझा जा सकता है, जहाँ नैतिक रूप से प्रेरित व्यवहार करने वाले व्यक्ति को दूसरों द्वारा नकारात्मक रूप से देखा जाता है, ख़ासकर यदि उन्हें लगता है कि उनके व्यवहार का मूल्यांकन किया जा रहा है।

इंट्रेस्टिंगली, अध्ययनों से पता चला है कि मांसाहारी लोग अक्सर शाकाहारियों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं, ख़ासकर यदि उन्हें लगता है कि शाकाहारी उनके आहार विकल्पों के लिए नैतिक रूप से उनका मूल्यांकन कर रहे हैं।

तो सर आपको जज होने से क्यों दिक़्क़त होनी चाहिए। या तो नैतिकताएँ हो ही ना या कन्सिस्टेंस हों। अपनी बारी आने पर आपका तर्क होगा कि नैतिकता परिप्रेक्ष्य होती हैं और अफ़ग़ानिस्तान में क़त्ल करना या क्रिश्चियन धर्म में वाइन पीना…

आपने सुना होता या पढ़ा होता तो आप ह्यूम के गिलोटिन (Hume's Guillotine) को भी यहाँ लेकर आ जाते कि किसी ‘इज़’ (is) से ‘ऑट’ (ought) पर नहीं पहुँचा जा सकता। (देखा आपने, ग़ौर किया कितनी ज़ल्दी एस्केप रूट तैयार हुआ)

दिक़्क़त समझ में आती है मुझे। यदि हम सवर्ण हैं, तो आरक्षण का विरोध करेंगे; यदि हम हिंदू हैं, तो मुस्लिम का विरोध करेंगे। लेकिन थोड़ा लिबरल हुए, इस बात का घमंड हुआ कि बहुत देख-सुन-पढ़ लिया तो समर्थन करना शुरू कर देंगे। कारण कि इसमें कुछ जा नहीं रहा। कुछ करना नहीं पड़ रहा और दूसरा, ये वीगन समर्थन जीव हत्या विरोध, ‘ब्लैक लाइफ़ मैटर्स’ या ‘प्राइड परेड’ की तरह ‘इन’ या हैपनिंग नहीं हुए ना। तीसरी दिक़्क़त ये है कि महिलाओं को समानाधिकार का मुद्दा इसलिए नेपथ्य से मंच पर ‘तेज़ी से’ आया क्योंकि उनके पास आवाज़ थी। यही बात अश्वेत, दलित, यहूदी, अल्पसंख्यकों को लेकर भी थी। ‘तेज़ी से’ का भी अर्थ हास्यास्पद रूप से यहाँ पर चार पाँच सौ वर्षों की क्रांति है, जिसके बावजूद हालात ‘आइडियल’ तो अब भी नहीं हुए हैं। तो फिर जानवर तो बेज़ुबान हैं।

पीटर सिंगर अपने काम ‘एनिमल लिबरेशन’ में तर्क देते हैं कि जानवरों की पीड़ा को नैतिक रूप से मनुष्यों की समान पीड़ा के बराबर माना जाना चाहिए, और ऐसा न करना ‘प्रजातिवाद’ (speciesism) है, जो नस्लवाद या लिंगवाद जैसा ही एक पूर्वाग्रह है। वह पूछते हैं, “प्रश्न यह नहीं है कि, क्या वे तर्क कर सकते हैं? न ही, क्या वे बात कर सकते हैं? बल्कि, क्या वे पीड़ित हो सकते हैं?” (जेरेमी बेंथम का उद्धरण, जिसे सिंगर ने लोकप्रिय बनाया)।

लगेंगे हमें डेढ़-ढाई हज़ार वर्ष शायद। मैं तब तक आपको जज नहीं करूँगा। ज़ेन गुरु सुंग सान को मानूँगा, जो बिना निर्णय के वास्तविकता को स्वीकारने पर ज़ोर देते हैं, लेकिन यदि कोई करता है तो उसे क्या कहूँ? कोई स्पेड को स्पेड बोले और ये भी कि मांसाहार बुरा, वीगन अच्छा—तो यकीन कीजिए मेरे पास आपको डिफ़ेंड करने के तर्क समाप्त हो चुके होंगे, क्योंकि आपने (शायद सही ही किया कि) अतीत में एक क़ातिल, एक रेपिस्ट, एक व्यभिचारी को पेला है, या ऐसा करने के आदेश दिए हैं। उस वीगन एक्टिविस्ट के इस तर्क का मेरे पास कोई जवाब नहीं होगा कि जब वह कहेगी, मुझे इनकी प्लेट से कोई दिक़्क़त नहीं, मेरे लिए यह ऐसा ही है जैसे ये नेटफ़्लिक्स देखें या सोनी लिव। मुझे दिक़्क़त प्लेट में सजे उस जीवन से है, जो पीड़ा और प्रताड़ना से गुज़र कर अब लाश बन चुका है।

यार आप हमेशा हर पल एक जजमेंट पास करते हो, लेकिन यह भी कहते हो कि हमारी थाली मत देखो। गोया कोई सीरियल किलर यह कह रहा हो कि मेरा बैकयार्ड मत देखो, जहाँ मैं लड़कियों और उनकी लाशों के साथ खेला करता था। मुझे सीरियल किलर की आज़ादी ग़ुलामी चॉइस फ़्रीडम वगैरह से कुछ लेना देना नहीं है भाई। मुझे दिक़्क़त है मारी जा चुकी, प्रताड़ित हुईं उन लड़कियों से। ग़ज़ब तर्क है आप हमारी फ़्रीडम ऑफ़ चॉइस को हमारी प्लेट को जज कर रहे हो।

रोसलिंड हर्स्टहाउस जैसे सद्गुण नैतिकतावादी तर्क देते हैं कि मांस खाना, विशेष रूप से यदि यह पशु पीड़ा से जुड़ा हो, तो करुणा की कमी या क्रूरता जैसे दुर्गुणों को दर्शा सकता है।

वह कहती हैं कि यदि हम जानते हैं कि सस्ते मांस के उत्पादन में कितनी क्रूरता शामिल है, और फिर भी उसका सेवन करते हैं, तो हम स्वयं को दयालु नहीं कह सकते, ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति दास प्रथा का फल भोगते हुए स्वयं को न्यायप्रिय नहीं कह सकता, भले ही वह स्वयं दास न रखता हो। नैतिक अंतर्विरोध यू सी...

चौथा पॉइंट यह है—यार किसी को अगर वीगन बनकर नैतिकता में एक पायदान ऊपर चढ़ने की ही फ़ील आती हो तो भी मैं उससे कहूँगा कि ब्रो तू दो पायदान चढ़ जा, तू कर ले अच्छा फ़ील (मिथ्या है ऐसा फ़ील करना लेकिन कर ले) क्योंकि यह ऐसा ही है कि यदि बिल गेट्स या अज़ीम प्रेमजी फ़ोटो ऑप की ख़ातिर भी डोनेट कर रहे हैं तो भी ‘दान अच्छे हैं’। मेरे लिए जानवर और उनकी पीड़ाएँ कम करना महत्वपूर्ण हैं। फिर उसका पॉजिटिव साइड इफ़ेक्ट चैन की नींद ही क्यों ना हो।

…जैसे ग़ालिब ने मीर की ग़ज़ल सुनते हुए एक सीरियल में कहा था, “हम तो अच्छे शेर के आशिक़ हैं, जहाँ मिल जाए, जैसे मिल जाए”।

बाई दी वह अच्छी ग़ज़ल है। सुनिएगा “जाने ना जाने गुल ही ना जाने बाग़ तो सारा जाने है।”

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