Font by Mehr Nastaliq Web

सरस्वती के 60 वर्ष

sarasvati ke 60 varsh

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

सरस्वती के 60 वर्ष

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

जनवरी सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ। उस समय मैं 6 वर्ष का था। उसके 12 अंक निकल जाने के बाद मेरे पिता ने एक साथ वे 12 अंक मँगवाए। तब तक मुझे हिंदी का अक्षर-ज्ञान अच्छी तरह हो गया था। ‘सरस्वती’ के वे अंक मेरे समान बालकों के लिए भी विशेष आकर्षक थे। सबसे अधिक आकर्षण ‘सरस्वती’ में प्रकाशित चित्रों के प्रति था। तब से मैं सन् 1920 तक ‘सरस्वती’ का सबसे बड़ा प्रेमी पाठक था।

हम लोगों की छात्रावस्था में हिंदी साहित्य की उच्च शिक्षा दुर्लभ थी। ‘सरस्वती’ से ही मैंने हिंदी साहित्य का ज्ञान प्राप्त किया। सबसे पहली कहानी जिसने मुझको मुग्ध किया, वह 'स्वर्ग की झलक' है। वह कहानी 1909-10 में निकली थी। कितने ही विज्ञों ने हिंदी की प्रारंभिक कहानियों में मिर्ज़ापुर निवासी बाबू रामप्रसन्न घोष की पुत्री बंग महिला की 'दुलाईवाली' शीर्षक कहानी का उल्लेख अवश्य किया है, परंतु 'स्वर्ग की झलक' का उल्लेख किसी ने नहीं किया है। 'स्वर्ग की झलक' में कथा की वही कला विद्यमान् है जिसके लिए प्रसिद्ध पाश्चात्य लेखक एंडरसन विख्यात है। ‘सरस्वती’ के प्रारंभिक अंकों में ‘तुम हमारे कौन हो' शीर्षक देकर सूर्य की जो आत्मकथा प्रकाशित हुई थी वह भी हम लोगों के लिए कम मनोरंजक नहीं थी। बंग महिला की 'दुलाईवाली' से कम आकर्षक उनका 'चंद्रदेव से मेरा निवेदन' शीर्षक लेख नहीं था। ज्यों-ज्यों मेरा ज्ञान बढ़ता गया, त्यों-त्यों ‘सरस्वती’ के लेखों के साथ-साथ कविताओं की ओर मेरा अनुराग बढ़ता गया। मैं नाथूराम शंकर शर्मा की कविताओं का बड़ा प्रेमी था। उनकी कितनी ही कविताएँ मैंने याद कर ली थीं। गुप्तजी की 'केशों की कथा' ने हम लोगों को विशेष रूप से मुग्ध किया। प्रेमचंदजी के हिंदी साहित्य में पदार्पण करने के पहले ‘सरस्वती’ में बंगभाषा की श्रेष्ठ कहानियों के अनुवाद प्रकाशित हुआ करते थे। कथा का सच्चा रस हम लोगों ने उन्हीं कहानियों में पाया।

निबंध लेखकों में ज्वालादत्त शर्मा ने उर्दू के कवियों पर जो परिचयात्मक निबंध लिखे वे हम लोगों के लिए बड़े प्रेरणाप्रद थे। देवनागरी लिपि के संबंध में वार्हस्पत्य जी की लेख-माला भी कम मनोरंजक नहीं थी। स्वयं द्विवेदी जी ने समय-समय पर कुछ ऐसे लेख लिखे हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य में उस समय बड़ी हलचल पैदा कर दी। ऐसे लेखों को भी हम लोग विशेष चाव से पढ़ते थे। बाबू मैथिलीशरण गुप्तजी ने भानुकवि के 'काव्य प्रभाकर' की बड़ी सुंदर आलोचना की थी। कामताप्रसादजी गुरु के आलोचनात्मक लेख भी हम लोगों के लिए आकर्षक थे। सच तो यह है कि छात्रावस्था में ही हम लोगों को साहित्य पर विशुद्ध अनुराग होता है। जब मैं बनारस के सेंट्रल हिंदू-कॉलेज में पढ़ता था तब पारसनाथसिंहजी मेरे एक सहपाठी थे। सन् 1912 से लेकर सन् 1916 तक हम लोग एक ही साथ बैठकर ‘सरस्वती’ पढ़ा करते थे। वह दिन हम लोगों के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण था जब वज्रपाणि के नाम से 'काबागूची की तिब्बत यात्रा' पर पारसनाथसिंहजी के लेख प्रकाशित हुए। उसके बाद मैंने भी सन् 1915 में 'सोना निकालने वाली चींटियाँ' नामक एक लेख लिखा। ‘सरस्वती’ की तब ऐसी प्रतिष्ठा थी कि ऐसे ही दो-चार लेख, दो-तीन कहानियाँ और दो-चार कविताएँ लिखकर मैं तत्कालीन हिंदी-लेखकों की पंक्ति में स्थान पा गया और सन् 1920 में मुझे ‘सरस्वती’ में काम करने का अवसर भी मिल गया।

‘सरस्वती’ के 61 वर्ष हो गए। मैं भी अब 67 वर्ष का हो गया। मुझमें अब ज़रा की जीर्णता के साथ वार्धक्य की शिथिलता गई है, परंतु साहित्य-लक्ष्मी तो चिर-पुरातन होकर भी चिर-नवीन बनी रहती है। मैं वृद्ध हो गया हूँ, परंतु ‘सरस्वती’ नहीं हुई है। उसमें चिरंतन तारुण्य की दीप्ति है। वह दीप्ति कभी वृद्ध भी निष्प्रभ नहीं हो सकती। साहित्य का क्षेत्र कभी भी रिक्त नहीं होता। एक जाता है और दूसरा उसका स्थान ग्रहण कर लेता है। साहित्य के क्षेत्र में सदैव तारुण्य की स्फूर्ति विद्यमान रहती है।

यह सच है कि हिंदी साहित्य में कितने ही पत्र प्रकाशित हुए और वे 10-15 वर्षों से अधिक नहीं चल सके। ‘सरस्वती’ बराबर 61 वर्षों तक प्रकाशित होती रही। ऐसा कभी भी अवसर नहीं आया कि उसका कोई अंक रुका। ‘सरस्वती’ के संचालकों के विशुद्ध साहित्य प्रेम के कारण ही ‘सरस्वती’ का प्रकाशन बराबर होता गया। ग्राहकों की चिंता उन्होंने कभी नहीं की। एक बार स्वर्गीय पटलबाबू ने मुझसे कहा था—'चाहे ‘सरस्वती’ का एक भी ग्राहक रहे: ‘सरस्वती’ बराबर निकलती रहेगी।' इसमें संदेह नहीं कि उन्हीं के हिंदी-प्रेम के कारण ‘सरस्वती’ का यह ऐतिहासिक महत्त्व है। ‘सरस्वती’ ने आधुनिक हिंदी-साहित्य का निर्माण किया है। ‘सरस्वती’ ने जनता में आधुनिक नवयुग की चेतना उत्पन्न की है। मेरे समान पाठकों के लिए ‘सरस्वती’ के सभी अंक चिरंतन आनंद के साधन हैं।

स्रोत :
  • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-6 (पृष्ठ 445)
  • संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
  • रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2007
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY