अनुप्रास का अन्वेषण
anupras ka anweshan
वर्षों व्यतीत हुए, मेरे आदरणीय अध्यापक श्रीयुत ललितकुमार वन्द्योपाध्याय विद्यारत्न एम. ए. महाशय ने कलकत्ता कॉलेज स्क्वायर के युनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट में संध्या समय सभापति के स्थान पर सर गुरुदास बनर्जी को बिठा ‘अनुप्रासेर अट्टहास’ शीर्षक बंगला प्रबंध पाठ किया था, जिसमें उन्होंने बंग भाषा में व्यवहृत, प्रयुक्त और प्रचलित संस्कृत, अँग्रेज़ी, उर्दू, हिंदी और बंगला शब्द मुहावरे और कहावतें उद्धृत कर अनुप्रास का अधिकार बंगला भाषा पर दिखाया था। प्रबंध पढ़े जाने पर बंगला बंगवासी के (संपादक) बाबू बिहारीलाल सरकार बोले कि बांगलाई कोबीतार भाषा। कारोन एतो ओनेक अनुप्रास आछे। ओतो अनुप्रास धार कोनो भाषा ते नाइं। ओनुप्रास कोबीतार ऐकटी गून अर्थात् 'बंगला ही कविता की भाषा है क्योंकि इसमें जितना अनुप्रास है उतना और किसी भाषा में नहीं। अनुप्रास कविता का एक गुण है।'
मुझे बूढ़े बिहारी बाबू की यह बात बहुत बुरी लगी। क्योंकि भारत के भाल की बिंदी इस हिंदी को मैं कविता की भाषा जानता था, क्या अब तक जानता और मानता हूँ। मैंने सोचा, क्या हिंदी भाषा में अनुप्रास का अभाव है? यदि नहीं, तो बंगला ही क्यों कविता की भाषा घोषित की जाए? यह सोच विचार मैंने हिंदी में अनुप्रास का अन्वेषण आरंभ कर दिया। इस अनुसंधान में जो कुछ अपूर्व आविष्कार हुआ, वही आज आप लोगों के आगे अर्पित करता हूँ।संस्कृत साहित्य में अनुप्रास का अनुसंधान अनावश्यक जाना; क्योंकि एक तो वह भारत की प्रायः सब ही भाषाओं की जननी है। उस पर सबकी समान श्रद्धा है। दूसरे उसके स्तोत्र तक जब अनुप्रास से अधिकृत हैं तब काव्यों की कथा ही क्या है? निदर्शन के लिए निम्नलिखित स्तव ही पर्याप्त होगा—
गांगं वारि मनोहारिमुरारि चरणच्युतम्।
त्रिपुरारि शिरश्चारि पापाहारि पुनातु माम्॥
पापापहारि दुरितारि तरङ्ग धारि।
शैल प्रचारि गिरिराज गुहा विदारि॥
झंकारकारि हरिपादरजोपहारि
गांगं पुनातु सतत शुभ कारिवारि॥
एक और सुनिये—
नमस्तेऽस्तु गंगे त्वेदंगप्रसंगात्।
भुजङ्गास्तुरङ्गाः कुरङ्गाः प्लवंगाः॥
अनंगारि रङ्गाः ससंगाः शिवांगा।
भुजङ्गाधिपांगी कृतांगा भवन्ति॥
हिंदी साहित्य में भी मैंने पद्य की ओर प्रस्थान नहीं किया, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वहाँ अनुप्रास का अड्डा अद्भुत रूप से जमा हुआ है; यथा—
चंपक चमेंलिन सों चमनि चमत्कार,
चमू चंचरीक के चितौत चोरे चित हैं।
चाँदी को चबूतरा चहूँधाँ चम चम करे,
चंदन सों गिरधर दास चरचित हैं।
चार चाँद तारे को चंदोवा चारु चाँदनी सो,
चामीकर चोवन पै चंचला चकित हैं।
चुन्नीन की चौकी चढ़ी चन्दमुखी चूड़ामनि,
चाहन सों चैत करें चैन के चरित हैं॥”
अन्य भाषा-भाषी अपनी-अपनी भाषा के दो चार शब्दों में अनुप्रास आता अवलोकन कर आनंदित और गद्गद हो जाते हैं; पर यहाँ तो चारों चरणों में चकार की भरमार है! अफसोस है, तो भी हम हिंदी की हिमायत न कर उर्दू और अँग्रेज़ी का ही आल्हा अलापते हैं। ख़ैर।
इसलिए मैंने पद्यपरित्याग कर गद्य की ओर ही गमन किया और वहाँ राजा रईस, राजा-रंक, राव-उमराव, सेठ-साहूकार, कवि-कोविद, ज्ञानी-ध्यानी; योगी-यती, साधु-संयासी से लेकर नौकर-चाकर, तेली-तमोली, बनिया-बक्काल, कहार-कलवार, मेहतर-चमार, कोरी-किसान और लुच्चे-लफंगों तक की बातचीत, गपशप, बात-विचार, रहन-सहन, खान-पान, रफतार-गुफतार, चाल-चलन, चाल-ढाल, मेल मुलाकात, रंग-रूप, आकृति-प्रकृति, जान-पहचान, हेल-मेल, प्रेम-प्रीति, आव-भाव, जात-पाँत, रीति-रस्म, रस्म-रवाज, रीति-नीति, पहनावे-ओढ़ावे, डील-डौल, ठाट-बाट, बोलचाल, संग-साथ, संगत-सोहबत में अनुप्रास का अमल-दखल पाया। मैंने अपनी ओर से न कुछ घटाया, न बढ़ाया, न काटा, न छाँटा, और न चुस्त-दुरुस्त ही किया। शब्दों को जिस सूरत शक्ल में जहाँ पाया वहाँ से वैसे ही उठाकर ठौर-ठिकाने से मौका महल देख रख भर दिया है।
अन्वेषण के पहले अनुप्रास का नाम-धाम, आकार-प्रकार, रंग-ढंग और नामोनिशान जान लेना ज़रूरी है। अंग्रेजी के ‘Alliteration & Assonance’, उर्दू फ़ारसी का ‘क़ाफ़िया-रदीफ’ और संस्कृत हिंदी का ‘अनुप्रास’ नाम में भिन्न होने पर भी काम में एक ही है।स्वर के बिना व्यंजन वर्ण के साम्य को अनुप्रास कहते हैं। यानी वाक्य और वाक्यांश में बारंबार एक ही प्रकार के व्यंजन वर्ण के आने को अनुप्रास कहते हैं। इसके अनेक रूप-रूपांतर हैं पर प्रधान पाँच ही है; जैसे—
(1) छेकानुप्रास—भोजन बिना भजन।
(2) वृत्यनुप्रास—हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापत्ति का सुंदर सिंहासन।
(3) श्रुत्यनुप्रास—खेलकूद, जंगलझाड़ी।
(4) अंत्यानुप्रास—अत्र तत्र सर्वत्र है, भारतमित्र सुपत्र।
(5) लाटानुप्रास—शिक्षित अबला अबला नहीं है।
अच्छा अब असली हाल सुनिये। अनुसंधान के अर्थ कमर कसते ही मुझे अपने इर्द-गिर्द, अगल-बगल, अड़ोस-पड़ोस, टोले-मुहल्ले, घर-बाहर, भीतर-बाहर, आस-पास, इधर-उधर, नाते-रिश्ते, बंधु-बांधव, भाई-बंद, भाई-भतीजे, कुटुंब-क़बीला, पुत्र-कलत्र, बाल-बच्चे, लड़के वाले, जोरू-जाँते, चूल्हे-चक्की, घर-बार, अपने-बेगाने, मान-भानेज, भाई-बिरादरी, खानदान-परिवार, तमाम में अनुप्रास ही अनुप्रास नज़र आने लगा। इसका अनुमान नहीं प्रत्यक्ष प्रमाण लीजिए। मेरा नाम जगन्नाथप्रसाद, स्टेशन जमुई, ससुर जहाँगीरपुर निवासी जौनमाने जसवन्तरायजी के जेठे बेटे जयंतीप्रसाद जी, मामा जयकृष्णलाल जी और लड़का जदुनंदन है। मेरा आदि निवास मथुरा, मध्य मिर्ज़ापुर और वर्तमान मलयपुर, जिला मुंगेर, प्रवास मुक्ताराम बाबू स्ट्रीट (कलकत्ता), अल्ल मई मिश्र, हिस्सेदार मिरजामलजी और चाचा मुरारीलाल तथा मथुराप्रसाद महोदय हैं। उपाधि चौबे चतुर्वेदी, काम चपड़े का और उमर चालीस की है। गोत्र सौश्रवस है। क़िस्सा कोताह परिजन, पुरजन, अरिजन, स्वजन सबकी मोह ममता और माया-मोह छोड़, मुँहमोड़, सजधज और बनठन कर अनुप्रास की तलाश में निकल पड़े।
वाणिज्य व्यापार
चूँकि अपना धर्म-कर्म वाणिज्य व्यापार से चलता है, नौकरी-चाकरी से कुछ लेना-देना नहीं। बस, जवानी दिवानी के फंदे में फँस, मनमानी घरजानी करता पहले बंगाल बंक की बड़ा बाज़ार ब्रेंच में जा पहुँचा, तो क्या देखता हूँ कि रोकड़-जाकड़, हिसाब-किताब, खाते-पत्तर, उचन्त-खाते, ख़र्च-खाते, ख़ैरात-खाते, ख़ुदरा-ख़र्च-खाते, बट्टे-खाते, ब्याज-बट्टा, लेन-देन, नकराई-सकराई, मिती के भुगतान, पैठ पर पैठ, देने-पावने, नाम-जमा, लेवाल-देवाल, लेवाल-बेचाल, साझे-सराकत, सौदा-सुल्फ, तार-वार, लेने-बेचने, खरीद-बिक्री, खरीद-फ़रोख़्त, बेचने-खोचने, मोल लेने, क्रय-विक्रय, मालटाल, मालजाल, मालमता, बिलटी-बीजक, बाक़ी-बकाये, मत्थे-पोते, ज़मीन-जाएदाद, धन-दौलत, धन-धान्य, अन्न-धन, सौ के सवाये, नफे-नुकसान, आमदनी-रफ्तनी, आगत-निर्गत, रूँक-धोक, दरदाम, मोल-तोल, बोहनी-बट्टे, बाज़ार दर, देनदार, दुकानदार, सर्राफ़, बजाज़, मुनीम-गुमाश्ते और बसने के ब्राह्मणों की कौन कहे—दिवाले निकालने, टाट उलटने, बम बोलने, ऑफीशियल असायनी और इनसालवेंट अदालत तक में अनुप्रास का आसन जमा है। केवल यही नहीं दल्लाल, नमूने कामकाज, कारबार, कारच्योहार, कामधंधे, ख़ुशी के सौदे, कल कारखाने, कल के कुली, जहाज़ की जेटी और बट्टे चट्टे में भी आप आ बैठे हैं।
बाज़ार बढ़े, चढ़े या घटे, गिरे या उठे, तेज़ हो या मंद, सुस्त या समान रहे, मारवाड़ी महाजन हो चाहे बंगाली व्यापारी, ब्योहरे बनिये हों चाहे ब्राह्मण अनुप्रास के चक्कर में सब ही हैं। उत्तमवर्ण अधमवर्ण में, स्वदेशीशिल्प में, सूची शिल्प में, शिल्प में, शिल्प सभा में, श्रमजीवी समवायु में, कृषिशिल्प प्रदशिनी में, वैश्यवृत्ति में, व्यावसायिक बुद्धि में, विज्ञान वाणिज्य में, अर्थशास्त्र में, कला कौशल में, व्यापारे बसते लक्ष्मी या लक्ष्मीर्वसति वाणिज्ये इस मूल मंत्र में भी अनुप्रास आ गया है। अमानत में ख़यानत करो, धन गबन करो, चाहे बचत बचाकर नौ नकद न तेरह उधार करे। कच्चे चिट्ठे को पक्का समझो या सफ़ेद को स्याह करो, बंक से बंधक का बंदोबस्त कर ब्याज बढ़ाओ, जूट पाट का फोटका या सट्टा करो पर अनुप्रास का अदर्शन न होगा।
साहित्य
अर्जन उपार्जन के उपरांत साहित्य सेवा है। संस्कृत साहित्य की कौन कहे, राष्ट्रभाषा हिंदी के साहित्य-संसार में भी अनुप्रास की आँधी आ गई है। दिव्य दृष्टि से नहीं चर्म्म चक्षुओं से ही चश्मा लगा आप देखेंगे कि कवि-कुल-कुमद-कलाधर, काव्य-कानन केसरी और कविता कुंजकोकिल कालिदास भी काव्य कल्पना में अनुप्रास का आवाहन करते हैं। कहीं-कहीं तो कष्ट कल्पना से काव्य का कलेवर कलुषित हो जाता है। यह कपोल कल्पना नहीं कवि कोविदों का कहना है! ख़ैर, वंशीवट, यमुना-निकट, मोर मुकुट, पीतपट, कालिंदी कूल, राधामाधव, ब्रजबनिता, ललिता, विधुवदनी कुँवर-कन्हैया, नंद-यशोदा, वसुदेव-देवकी, वृंदावन, गिरिगोवर्धन, ग्वालबाल, गो-गोप-गोपी, ताल-तमाल, रसाल साल, लवंगलता, विपिन-बिहारी, नंदनंदन, विरह-व्यथा, वियोग-व्यथा, संयोग-वियोग, मधुर मिलन, मदन-महोत्सव और मलयानिल ही नहीं झिल्लियों की झंकार, बीरवादर, घन-गर्ज्जन, वर्षण, दामिनी की दमक, चपला की चमक, बादर की ग़रज शीतल सुगंध मंद मारुत, कुसुम-कलिका, मदन-मंजरी, वीर-बहूटी, चोआ-चंदन, अतर-अरगजा, तेल-फुलेल, मेंहदी-महावर, सोलह-शृंगार, मृगमद, राहुरद, कुमुद-कमल-कलहार, स्थल-कमल, सरसिज, सरोरुह, पद्मपत्र, एलालता, लज्जावती लता, छुई-मुई की पत्ती, कोयल की कुहक, कूजित कुंज-कुटीर, शशि बसंती वायु, मलय मारुत मधुमास, युवक युवती नवयौवन, षोड़शी, स्मरशर, पवित्र प्रेम, प्रेमपाश प्रेमपिपासा, यामिनी-यापन, रमणी रत्न, सुखसागर, दु:खदावानल, अंध अनुराग, मुग्धा, मध्या प्रोषित-पतिका, वासक-सज्जा, अधवा विधवा सधवा, चित्तचोर, मनमोहन मदनमोहन, दिलदार यार, प्राणनाथ प्राणप्रिय पीन-पयोधर प्रेमपत्र, प्रेम-पताका, प्राणदान, सुखस्वप्न, आलिंगन चुंबन, चूमा-चाटी, पादपद्म, कृत्रिमकोप, भ्रूभंग भृकुटीभङ्गी, मानमर्दन और मानभंजन भी अनुप्रास के अधीन हैं।
कंबुग्रीव, बाहुवल्ली, करकमल पद्मपलाशलोचन, कुचकमल, कुचकलश, कुचकुंभ, निबिड़चितंब, पदपल्लव, गजगमन, हरिणनयन, केसरिकटि गोलकगोल, गुलाबीगाल, कोमलकर, दाड़िम-दसन और साफ़-सुथरी गोरी नारी की मधुर मुसुकान में अनुप्रास का जैसे पास है वैसे ही काली-कलूटी मैंली-कुचैली नाटी-मोटी, खोटी-छोटी, कर्कशा, कलहकारिणी कुलटा के बिखरे बालों में भी है। तात्पर्य यह कि प्रेम में नेम नहीं, तकल्लुफ़ में सरासर तकलीफ है। प्रेम का पंथ ही पृथक है। निराला होने पर भी आला है। इसमें सुख-दुःख और जीवन-मरण दोनों हैं। हँसा सो फंसा। इश्क़ हकीक़ी हो या मजाज़ी उसमें मार और प्यार दोनों हैं। भगत के बस में हैं भगवान। आशिक़ माशूक और प्रेमिक प्रेमिकाओं के हावभाव, नाज़-नखरे, चोचले, ढकोसले भुक्तभोगी ही जानते हैं। जो दिल जले हैं उनका दिल भला कहीं क्यों लगने लगा? जो सदा सर्वदा मक्खियाँ मारा करते हैं उनसे भला क्या होना जाना है? जिसका सनेह सच्चा है वह लाख आफ़त विपत होते भी सही सलामत मंजिले मकसूद को पहुँच जाता है। उसके लिए विघ्नबाधा, विपद्बाधा कुछ है ही नहीं। यहाँ तक तो अनुप्रास आया है। अब आगे राम मालिक है।
व्याकरण के वर्तमान भूत भविष्यत् में, संज्ञा सर्वनाम में, विशेष्य-विशेषण में, सन्धि-समास में, कर्त्ता-क्रिया-कारक में, कर्ता-कर्म-करण में, अपादान-संप्रदान-अधिकरण में, संबोधन में, उद्देश्य-विधेय में, कर्तरिकर्मणि प्रयोगों में, तत्पुरुष-कर्मधारय-बहुव्रीहि-द्वंद्व-द्विगु समासों में, विभक्ति-प्रत्यय में, प्रकृति-प्रत्यय में, आसक्ति-आकांक्षा में, सार्थक-निरर्थक शब्दों में, जाति-व्यक्ति और भाववाचक सज्ञाओं में जब अनुप्रास का निवास है तब सामयिक साहित्य की सामग्री काग़ज़-क़लम, क़लम-पेनसिल, रूल-पेनसिल, हेंडल-होलडर, स्याहीसोख, निबपिन, कैंची एडीटर, कम्पोजिट, प्रिएटर, पब्लिशर, संपादक, मुद्रक, प्रकाशक, प्राप्तपत्र, प्रेरितपत्र, संपादकीय स्तंभ, साहित्य-समाचार, तार-समाचार, तड़ित-समाचार, तार-तरंग विविध समाचार, मुफस्सिल-समाचार, साहित्य-समालोचना, क्रोड़पत्र, वेल्यू-पेबल पारसल और प्रेस सेनसर में भी अवश्य ही है।
धर्म
साहित्य सेवा के बाद धर्म-कर्म है। धर्मंध, धर्मधुरंधर, धर्मधुरीण, धर्मावतार और सनातन धर्मावलंबी बनकर पोथी पुराण, श्रुतिस्मृति, शास्त्र-पुराण का पठन-पाठन और श्रवण-मनन करो; प्रतिमा-पूजन, प्रतिपादन, मूर्ति-पूजा मंडन और श्राद्ध-तर्पण का शंका समाधान करो; पाखंडी पंडों, पुरोहितों और पंडितों के पैर पूजो; लकीर के फ़कीर बनो; संयम-नियम, तीर्थव्रत, योग-भोग, जप-तप, योग-यज्ञ, ज्ञान-ध्यान, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ कर कर्मकांडी कहाओ; हव्य, कव्य, गव्य, पंचामृत, पंचगव्य, धूपदीप, चंदन, पुष्प, कुमकुम, गंगाजल, तुलसीदल और तांबूल पूँगीफल से परमात्मा का पूजन अर्चन करो; चाहे आर्यसमाजी हो बाल-विवाह विधवाविवाह, बहुविवाह, वृद्धविवाह, बेमेल ब्याह का विरोधकर समाज-संस्कार, समाज-सुधार के साथ नियोग-निरूपण करो या खंडन-मंडन, शास्त्रार्थ-संध्या वंदन, होम-हवन कर मांसपार्टी-घासपार्टी पैदा करो पर अनुप्रास सदा सर्वत्र अनुसरण करता है। केवल यही नहीं; प्रवृत्ति, निवृत्ति, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष, मुक्ति-मोक्ष, लोक-परलोक, यम-यातना, साकार-निराकार, निर्गुण-सगुण, काशी-करवट, दान-पुण्य, जन्म-मरण, जन्म-मृत्यु, विषय-वासना, ब्रह्मविद्या, मुक्ति-मार्ग, ज्ञाननेत्र, आगम-निगम, वेद-उपनिषद्, वेदवेदांग वेदान्त, ब्रह्मवैवर्त्त, श्रीमद्भगवद्गीता, शास्त्रसिद्ध विधिनिषेध और वेद विहित कर्मो में भी अनुप्रास का आदर देखा।आचार-विचार, नेम धरम, नित्यनैमित्तिक क्रिया-कर्म, ध्यानधारणा, स्तवस्तोत्र, यंत्र-मंत्र-तंत्र, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ, भजन-पूजन, भगवचिंतन, प्रायश्चित, पुरश्चरण, वृद्धि, श्राद्ध, आद्य श्राद्ध, सपिंडणश्राद्ध, पितृप्रेत कृत्य, पिंडप्रदान, कपाल-क्रिया, जलांजलि, तिलांजलि, पितृपक्ष और गोग्रास में भी अनुप्रास का अनुभव किया।
हिन्दुओं के परब्रह्म परमात्मा ब्रह्मा-विष्णु-शिव, वरुण, कुबेर, जय-विजय नामक दोनों द्वारपाल, सूर्य-चंद्र, ग्रह-नक्षत्र, काली, कमला, शीतला, सरस्वती, महामाया इंद्राणी शर्वाणी कल्याणी, देव-दानवों, देवी-देवताओं, नरीकिन्नरी अप्सराओं, गंधर्वो, भूत-प्रेत-पिशाचों में ही नहीं; मुसलमानों के पाकपरवरदिगार, अकबर-हज़रत-मुहम्मद, पीर-पैग़म्बर, पाँच पीर, हसन-हुसैन, मक्के-मदीने, कलाम अल्लाह, जामा मसजिद, मोती मसजिद, मीना मसजिद, रोज़ारमज़ान, अलहम-दुलिल्लाह, शीया-सुन्नी में; ईसाइयों के ईसामसीह, बाइबिल, मरियम, देवदूत, प्रभात प्रार्थना में तथा बौद्धों के बुद्धदेव, शाक्यसिंह, पद्मपाणि, प्रज्ञापारमिता, बौद्धविहार, दलाईलामा में, सिक्खों के नानक और गुरुगोविन्द में; जैनियों के पार्श्वनाथ पहाड़ में, आर्यसमाजियों के स्वामी दयानंद सरस्वती और सत्यार्थ प्रकाश में, ब्रह्म समाजियों के राजा राममोहन राय में और वैष्णवों के वल्लभाचार्य में भी अनुप्रास है।
कुम्भ मेले पर ओ. आर. आर. से हरद्वार जा हर की पैरी के पुल के पास जगजननी जाह्नवी के शीतल जल से पाप ताप, त्रय ताप प्रक्षालन करो, त्रिवेणी के तट पर माघ मेले में मुंडन करा मकर नहाओ, सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में या मलमास में राजगिर जा स्नान-दान करो, संक्रांति के समय सागर-संगम या गंगासागर का सफ़र करो, कार्तिक की पूर्णिमा पर हरिहर क्षेत्र जाकर गंडकी में गोते लगाओ, बैजनाथ जी में बं बं बोलो या काशी के कंकर शिवशंकर समान जानो, कोट कांगड़े की नयना देवी के दर्शन करो या मन चंगा तो कठौती में गंगा के अनुसार शिक्षा-दीक्षा ले घर पर ही अतिथि अभ्यागतों साधु-संन्यासियों की सेवा कर मेवा पाओ, चाहे व्यसनी व्यभिचारी विलासी बाबू बनकर विषय वासना के वशीभूत हो बाग़ बग़ीचे की बारहदरी में चुपचाप संगी-साथियों के साथ मिल-जुल आमोद-प्रमोद, ऐशो-इशरत ऐसोनिशात करो, शराब-कबाब और मांस मछलियाँ उड़ाओ, होटलों में बोतलों के बिलों का टोटल दे बंक पर चेक काटो या भाट भिखारियों दीन-दुखियों और लूले-लँगड़ों को कानी कौड़ी न दे महफिल में मुज़रा सुन रंडी-भड़वे और भाँड़ भगतिनों को इनाम एकराम दे सब स्वाहा कर डालो या शिखासूत्र परित्याग परमहंस बनो या वल्लभ कुलियों को ‘तन मन धन अर्पन’ कर समर्पण ले लो, पर अनुप्रास सदा साथ रहेगा।
- पुस्तक : कोविद गद्य (पृष्ठ 64)
- संपादक : श्री नारायण चतुर्वेदी
- रचनाकार : जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी
- प्रकाशन : रामनारायण लाल पब्लिशर और बुक
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